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________________ ३४० श्रावकाचार-संग्रह अपिचशरीरावयवत्वेऽपि मांसे दोषो न सपिषि । धेनुदेहसृतं मूत्रं न पुनः पयसा समम् ॥८७ यथा वा तीर्थभूतेव मुखतो निन्द्यते हि गौः । वन्द्यते पृष्ठतः सैव किदित्थं प्रकाश्यताम् ॥८८ तच्छाक्यसांख्यचार्वाकवेदवैद्यकपदिनाम् । मतं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयोर्थिभिः सदा ॥८९ अवन्तीविषये चण्डो मातङ्गो मांसवर्जनात् । यक्षाधिपतिसाम्राज्यं प्रपेदे करुणाङ्कितः ॥९० पूर्वभाषितकाव्यद्वयम् अज्ञातकं फलमशोधितशाकपत्रं पूगीफलानि सकलानि च हट्टचूर्णम्। मालिन्यसपिरपरीक्षितमानुषान्नं हेयं विवेककलितैजिनतत्त्वविद्भिः ॥९१ आमगोरससम्पृक्तं द्विदलं द्रोणपुष्पिका । सन्धानकं कलिङ्गच नाद्यते शुद्धदृष्टिभिः ॥९२ शिम्बयो मूलकं बिल्वफलं च कुसुमानि च । नालोसूरणकन्दश्च त्यक्तव्यं शृङ्गवेरकम् ॥९३ शतावरी कुमारी च गुडूची गिरिणिका । स्तुही त्वमृतवल्ली च त्यक्तव्या कोमलाम्लिका ॥९४ सर्वे किशलयाः सूक्ष्मजन्तुसन्तानसङ कुलाः । आईकन्दाश्च नाद्यन्ते भवभ्रमणभीरुभि. ॥९५ अन्तरायाश्च सप्त पालनीयाः । तद्यथामांसरक्ताचर्मास्थिसुरादर्शनतस्त्यजेत् । मृताङ्गिवोक्षणादन्नं प्रत्याख्यातान्नसेवनात् ॥९६ पित्तसे उत्पन्न होनेवाले गोरोचनको प्रतिष्ठा आदि कार्यों में उपादेय कहा है ।।८६।। और भी देखो-शरीरका अवयव होनेपर भी मांसके भक्षणमें दोष कहा गया है, किन्तु घीके भक्षणमें दोष नहीं कहा गया है। गायके देहसे निकला मूत्र दूधके समान पेय नहीं माना जाता है ।।८७।। अथवा अन्य मत वाले गौको तीर्थ स्वरूप मानते हैं, परन्तु मुखसे उसके स्पर्शको निन्द्य और पृष्ठ भागसे उसे वन्द्य मानते हैं । इस प्रकार इस विषय में कितना कहा जाय ॥८८॥ इसलिए शाक्य (बौद्ध), सांख्य, चार्वाक (नास्तिक), वेद, वैद्य और कापालिक लोगोंके मतको छोड़कर आत्मकल्याणके इच्छुक जनोंको मांसका सदा ही त्याग करना चाहिए ।।८९॥ अवन्ती देशमें चण्डनामक मातंग मांसके त्यागसे करुणा युक्त होकर यक्षदेवोंके आधिपत्यरूप साम्राज्यको प्राप्त हुआ ॥९०।। (इसकी कथा प्रथमानुयोगसे जाननी चाहिए।) इस विषयमें पूर्व पुरुषोंसे कहे गये दो काव्य इस प्रकार है अज्ञात फल, अशोधित शाक-भाजी, सभी प्रकारके सुपारी, बादाम, मूगफली आदि फल, हाट-- बाजारका बना चूर्ण एवं बाजारू आटा-कनक, चून आदि मलिनता-युक्त घी, अपरीक्षित मनुष्यका अन्न विवेक-युक्त अर्थात् हेय और उपादेय तत्त्वके जानकारोंको छोड़ना चाहिए ॥११॥ इसी प्रकार शुद्ध सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको कच्चे दूध-दही-छांछसे मिश्रित द्विदल पदार्थ, द्रोणपुष्प, सन्धानक (अचार-मुरब्बा आदि) और कालिन्द (तरबूज) नहीं खाना चाहिए ॥१२॥ सेम, मूली, बिल्व फल, पुष्प, नाली सूरण, जमीकन्द, और अदरकका भी त्याग करना चाहिए । शतावरी, कुमारी, गुरबेल, गिरिकर्णिका, थूहर, अमरबेल, और कोमल इमली भी छोड़ना चाहिए ॥९३-९४॥ सभी प्रकारके कोमल पते, सूक्ष्म जन्तुओंके समूहसे व्याप्त फल-पुष्पादि और गीले कन्द भी संसार-परिभ्रमणसे डरनेवाले लोगोंको नहीं खाना चाहिए ॥१५॥ भोजन करनेके समय ये सात अन्तराय भी पालन करना चाहिए। मांस, रक्त, गीला चमड़ा, हड्डी और मदिराको देखने के बाद भोजनका त्याग करे । भोजनमें मरे हुए जन्तुको देखकर भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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