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________________ श्रावकाचार-सारोबार तैलं सलिलमाज्यं वा चर्मपात्रापवित्रितम् । प्राणान्तेऽपि न गृह्णीयानरः सद-व्रतभूषितः ७७ देशकालवशात्तत्स्थमाद्रियन्तेऽत्र ये जनाः । जिनोदितमकुर्वन्तस्तेऽपि निन्द्याः पदे पदे ॥७८ कुत्सितागमसम्भ्रान्ताः कुतर्कहतचेतसः । वदन्ति वादिनः केचिन्नाभक्ष्यमिह किञ्चन ॥७९ उक्तंच-- जीवयोगाविशेषेण मृगमेषादिकायवत् । मुद्गमाषादिकायेऽपि मांसमित्यपरे जगुः ॥८० मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं न वा भवेन्मांसम् । यद्वनिम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।।८१ यद्वद् गरुडः पक्षी पक्षी न तु सर्प एव गरुडोऽस्ति। रामैव चास्ति मातामातान तु सार्विका रामा।।८२ -ततस्त्याज्यमेव । प्रायश्चित्तादिशास्त्रेषु विशेषा गणनातिगाः । भक्ष्याभक्ष्यादिषु प्रोक्ता कृत्याकृत्ये विमुच्यताम् ।।८३ अथवा शुद्धं दुग्धं न गोमांसं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् । विषघ्नं रत्नमादेयं विषं च विपदे यतः ॥८४ हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥८५ पञ्चगव्यं तु तैरिष्टं गोमांसे शपथः कृतः । तत्पित्तजाप्युपादेया प्रतिष्ठादिषु रोचना ॥८६ सद्-व्रतसे भूषित मनुष्यको प्राणान्त होनेपर भी चर्म-पात्रसे अपवित्र हुआ तेल, जल और घी नहीं ग्रहण करना चाहिए ॥७७॥ जो मनुष्य देश-कालके वशसे चर्ममें स्थित तेल-घृतादिको ग्रहण करते हैं, वे जिन-भाषित वचनका पालन नहीं करते हुए पद-पदपर निन्दनीय होते हैं ॥७८|| खोटे आगमके अभ्याससे भ्रम-युक्त, कुतर्कोसे विनष्ट चित्त कितने ही वादी लोग कहते हैं कि इस संसारमें कुछ भी वस्तु अभक्ष्य नहीं है ।।७।। कहा भी है-शरीरमें जीवका संयोग समान होनेसे मृग-मेष आदिके शरीरके समान मूग, माष (उड़द) आदिके शरीरमें भी मांस है, अर्थात् वनस्पतिज वस्तुएं भी मांस हो हैं, ऐसा कितने ही दूसरे लोग कहते हैं ।।८०॥ ऐसा कहनेवालोंके लिए आचार्य उत्तर देते हैं-कि मांस तो जीवका शरीर है, किन्तु जो जीवका शरीर है, वह मांस भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। जैसे कि जो नीम है वह तो वृक्ष अवश्य है; किन्तु जो वृक्ष है, वह नीम भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है ।।८।। अथवा जैसे जो गरुड़ है वह तो पक्षी है, किन्तु जो पक्षी हैं, वे सभी गरुड़ नहीं होते हैं। अथवा जैसे माता तो स्त्री है, किन्तु सभी स्त्रियां माता नहीं होती हैं ॥८२।। इसलिए मांस त्याज्य ही है। प्रायश्चित्तादि शास्त्रोंमें भक्ष्य और अभक्ष्य आदिके विषयमें अगणित विशेष भेद कहे गये हैं, अतः भक्षण करने योग्य पदार्थोंको ग्रहण करना चाहिए और भक्षण नहीं करनेके योग्य पदार्थोंका त्याग करना चाहिए ॥८॥ अथवा उसी गायसे निकलनेवाला दूध शुद्ध है अतः भक्ष्य है और उसका मांस शुद्ध नहीं, अतः अभक्ष्य है, ऐसी ही वस्तु-स्वभावको विचित्रता है। जैसे मणिधर सर्पका मणि ग्रहण करनेके योग्य है और उसका विष मारक होनेसे विपत्तिके लिए होता है, अतः ग्रहण करनेके योग्य नहीं होता ।।८।। मांस और दूधके उत्पादक कारण समान होनेपर भी मांस हेय है और दूध पेय है। जैसे विषवृक्षका पत्र आयु-वधंक या जीवन-रक्षक होता है और उसका मूल भाग मरणके लिए कारण माना गया है ॥८५|| अन्य मतवालोंने पंच गव्यमें दूधको तो स्वीकार्य इष्ट कहा है, किन्तु गोमांसमें शपथ की है, अर्थात् त्याज्य कहा है। उन लोगोंने गायके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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