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________________ ३३८ श्रावकाचार-संग्रह उक्तं च न मांससेवने दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेवं भूतानामित्यूचूर्विषयार्थिनः ॥६७ अनादिकालभ्रमतां भवाब्धौ निर्दयात्मनाम् । कामार्त्तचेतसां याति वचःपेशलतामदः ॥६८ कृपालुतार्द्रबुद्धीनां चारित्राचारशालिनाम् । अमृषाभाषिणामेषां न स्तुत्या गोः क्वचिन्नृणाम् ॥६९ sa सर्वाशिनो लोके दुराचरणचञ्चवः । नरत्वेऽपि न ते किं स्युः राक्षसा मनुजाधमाः ॥७० भक्ष्यं स्यात्कस्यचित् किञ्चिदभक्ष्यं स्यात्स्वभावतः । विशेषतो मुमुक्षोस्तन्न विमुक्तिव्रतं विना ॥७१ सद्-व्रतं वहतां जिह्मस्वभावं च विमुञ्चताम् । निश्चयाच्छान्तचित्तानामभीष्टं सिध्यति ध्रुवम् ॥७२ विवेच्य बहुधा धीरस्त्यज्यतामिदमष्टकम् । परलोकक्षतिनं स्याद्यतः सद्-व्रतधारिणाम् ॥७३ अथवा सन्दिग्धेऽपि परे लोके त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि न स्यात्ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ७४ अन्नपानादिकं कर्म मद्यमांसाशिसद्मसु । प्राणान्तेऽपि न कुर्वी रन् परलोकाभिलाषुकाः ॥७५ पूर्वभाषितं यथा भोजनादिषु ये कुर्युरपाङ्क्तेयैः समं जनाः । संसर्गात्तऽत्र निन्द्यन्ते परलोकेऽपि दुःखिताः ॥७६ उनके नियमसे व्रतोंकी हानि होती है, क्योंकि अकर्तव्य अर्थात् नहीं करने योग्य कार्यके करनेपर व्रत- क्रिया कैसे संभव है ॥ ६६ ॥ कहा भी है-विषयोंके अर्थी पुरुष कहते हैं कि न मांस सेवनमें दोष है, न मद्य और मैथुनके सेवन में ही दोष है, क्योंकि यह तो प्राणियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है ||६७|| जो पुरुष अनादिकाल से भव-सागर में परिभ्रमण कर रहे हैं, निर्दयी हैं, और कामसे पीड़ित चित्तवाले हैं, उनको ही यह उक्त वचन सुन्दर लगता है ||६८|| किन्तु जिनकी बुद्धि दयालुतासे आर्द्र है, जो चारित्रके आचार-विचारवाले हैं और सत्यभाषी हैं ऐसे मनुष्योंको उक्त वाणी क्वचित् कदाचित् भी स्तुत्य नहीं है ||६९ || जो लोग इस लोक में सर्व-भक्षी हैं और दुराचरणमें कुशल हैं, वे मनुष्य होनेपर भी अधम पुरुष राक्षस क्यों न माने जावें ? अर्थात् ऐसे लोगोंको राक्षस ही मानना चाहिए || ७० || किसी मनुष्यको कोई वस्तु स्वभावसे भक्ष्य होती है और किसी को कोई वस्तु स्वभावसे अभक्ष्य होती है । विशेष रूपसे मुक्तिके इच्छुक पुरुष किसी भी अभक्ष्य वस्तुको न खावें, क्योंकि व्रतके विना मुक्ति प्राप्त नहीं होती है || ७१|| सद्-व्रतोंको धारण करनेवाले, कुटिल स्वभावको छोड़नेवाले और शान्त चित्त पुरुषोंको निश्चयसे अभीष्ट अर्थकी सिद्धि होती है ||७२ || इसलिए धीर-वीर पुरुषोंको चाहिए कि वे अनेक प्रकारसे विचार करके मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बर फल, इन आठोंके सेवनका परित्याग करें, जिससे कि उन सद्-व्रतधारी जनोंको परलोककी कोई क्षति नहीं होवे ||७३ | | अथवा - परलोकके सन्दिग्ध होनेपर भी बुद्धिमानोंको अशुभ कार्य - का त्याग करना ही चाहिए। यदि परलोक नहीं है, तो अशुभके त्यागसे क्या बिगड़ेगा ? अर्थात कुछ भी नहीं । और यदि परलोक है, तो नास्तिकमती मारा गया । अर्थात् उसके सिद्धान्तका घात हुआ ||७४ || जो लोग परलोकको सुन्दर बनानेके अभिलाषी हैं उन्हें प्राणान्त होनेपर भी मद्य-मांस खाने-पीने वालोंके घरोंमें अन्न-पानादि कार्य नहीं करना चाहिए ||७५ || जैसा कि पूर्व पुरुषोंका कथन है- जो मनुष्य पंक्ति में नहीं बैठनेके योग्य ऐसे नीच पुरुषोंके साथ भोजनादि करते हैं, वे मनुष्य उनके संसर्गसे इसी लोकमें निन्दाको प्राप्त होते हैं और परलोकमें भी दुःखी होते है ॥७६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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