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श्रावकाचार-संग्रह
उक्तं च
न मांससेवने दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेवं भूतानामित्यूचूर्विषयार्थिनः ॥६७ अनादिकालभ्रमतां भवाब्धौ निर्दयात्मनाम् । कामार्त्तचेतसां याति वचःपेशलतामदः ॥६८ कृपालुतार्द्रबुद्धीनां चारित्राचारशालिनाम् । अमृषाभाषिणामेषां न स्तुत्या गोः क्वचिन्नृणाम् ॥६९ sa सर्वाशिनो लोके दुराचरणचञ्चवः । नरत्वेऽपि न ते किं स्युः राक्षसा मनुजाधमाः ॥७० भक्ष्यं स्यात्कस्यचित् किञ्चिदभक्ष्यं स्यात्स्वभावतः । विशेषतो मुमुक्षोस्तन्न विमुक्तिव्रतं विना ॥७१ सद्-व्रतं वहतां जिह्मस्वभावं च विमुञ्चताम् । निश्चयाच्छान्तचित्तानामभीष्टं सिध्यति ध्रुवम् ॥७२ विवेच्य बहुधा धीरस्त्यज्यतामिदमष्टकम् । परलोकक्षतिनं स्याद्यतः सद्-व्रतधारिणाम् ॥७३
अथवा
सन्दिग्धेऽपि परे लोके त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि न स्यात्ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ७४ अन्नपानादिकं कर्म मद्यमांसाशिसद्मसु । प्राणान्तेऽपि न कुर्वी रन् परलोकाभिलाषुकाः ॥७५ पूर्वभाषितं यथा
भोजनादिषु ये कुर्युरपाङ्क्तेयैः समं जनाः । संसर्गात्तऽत्र निन्द्यन्ते परलोकेऽपि दुःखिताः ॥७६ उनके नियमसे व्रतोंकी हानि होती है, क्योंकि अकर्तव्य अर्थात् नहीं करने योग्य कार्यके करनेपर व्रत- क्रिया कैसे संभव है ॥ ६६ ॥
कहा भी है-विषयोंके अर्थी पुरुष कहते हैं कि न मांस सेवनमें दोष है, न मद्य और मैथुनके सेवन में ही दोष है, क्योंकि यह तो प्राणियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है ||६७||
जो पुरुष अनादिकाल से भव-सागर में परिभ्रमण कर रहे हैं, निर्दयी हैं, और कामसे पीड़ित चित्तवाले हैं, उनको ही यह उक्त वचन सुन्दर लगता है ||६८|| किन्तु जिनकी बुद्धि दयालुतासे आर्द्र है, जो चारित्रके आचार-विचारवाले हैं और सत्यभाषी हैं ऐसे मनुष्योंको उक्त वाणी क्वचित् कदाचित् भी स्तुत्य नहीं है ||६९ || जो लोग इस लोक में सर्व-भक्षी हैं और दुराचरणमें कुशल हैं, वे मनुष्य होनेपर भी अधम पुरुष राक्षस क्यों न माने जावें ? अर्थात् ऐसे लोगोंको राक्षस ही मानना चाहिए || ७० || किसी मनुष्यको कोई वस्तु स्वभावसे भक्ष्य होती है और किसी को कोई वस्तु स्वभावसे अभक्ष्य होती है । विशेष रूपसे मुक्तिके इच्छुक पुरुष किसी भी अभक्ष्य वस्तुको न खावें, क्योंकि व्रतके विना मुक्ति प्राप्त नहीं होती है || ७१|| सद्-व्रतोंको धारण करनेवाले, कुटिल स्वभावको छोड़नेवाले और शान्त चित्त पुरुषोंको निश्चयसे अभीष्ट अर्थकी सिद्धि होती है ||७२ || इसलिए धीर-वीर पुरुषोंको चाहिए कि वे अनेक प्रकारसे विचार करके मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बर फल, इन आठोंके सेवनका परित्याग करें, जिससे कि उन सद्-व्रतधारी जनोंको परलोककी कोई क्षति नहीं होवे ||७३ | | अथवा - परलोकके सन्दिग्ध होनेपर भी बुद्धिमानोंको अशुभ कार्य - का त्याग करना ही चाहिए। यदि परलोक नहीं है, तो अशुभके त्यागसे क्या बिगड़ेगा ? अर्थात कुछ भी नहीं । और यदि परलोक है, तो नास्तिकमती मारा गया । अर्थात् उसके सिद्धान्तका घात हुआ ||७४ || जो लोग परलोकको सुन्दर बनानेके अभिलाषी हैं उन्हें प्राणान्त होनेपर भी मद्य-मांस खाने-पीने वालोंके घरोंमें अन्न-पानादि कार्य नहीं करना चाहिए ||७५ ||
जैसा कि पूर्व पुरुषोंका कथन है- जो मनुष्य पंक्ति में नहीं बैठनेके योग्य ऐसे नीच पुरुषोंके साथ भोजनादि करते हैं, वे मनुष्य उनके संसर्गसे इसी लोकमें निन्दाको प्राप्त होते हैं और परलोकमें भी दुःखी होते है ॥७६॥
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