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________________ श्रावकाचार-सारोदार १३७ उक्तं च-- मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः । वल्भ्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ॥५५ अन्तर्मुहर्ततो यत्र विचित्रा सत्त्वसन्ततिः । सम्पद्यते न तद्भक्ष्यं नवनीतं विचक्षणैः ॥५६ चित्रप्राणिगणाकीणं नवनीतं गतकृपाः । ये खादन्ति न तेष्वस्ति संयमस्य लवोऽपि हि ॥५७ जन्तोरेकतरस्यापि रक्षणे यो विचक्षणः । नवनीतं स सेवेत कथं प्राणिगणाकुलम् ॥५८ एष्वेकमपि यः स्वावादत्ति सोऽपि भवाम्बुधौ । अटाटयते स्फुटं कि वा कथ्यते सर्वभक्षिणः ॥५९ न्यग्रोधपिप्पलप्लक्षकाकोदुम्बरभूरुहाम् । फलान्युदुम्वरस्यापि भक्षयेन्न विचक्षणः ॥६० स्थावराश्च वसा यत्र परे लक्षाः शरीरिणः। तत्पञ्चदम्बरोद तं खाद्यते न फलं वचित ॥६१ क्षीरवृक्षफलान्यत्ति चित्रजीवकुलानि यः । संसारपातकं तस्य पातकं जायते बहुः ॥६२ धीवरैः प्राणिसङ्गातघातिभिस्ते समानताम् । अञ्चन्ति वञ्चिताः पापा पञ्चोदुम्बरभक्षणात् ॥६३ क्षामो बुभुक्षयात्यर्थं भक्ष्यमप्राप्नुनुवन्नपि । नाभक्ष्यं भक्षयेत्प्राज्ञः पिप्पलादिभवं फलम् ॥६४ उक्तं चयानि पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपः स्यात्।।६५ त्वचं कादं फलं पत्रमेषां खादन्ति ये नराः । व्रतहानिर्द्वतं तेषामकर्तव्ये कुतः क्रिया ॥६६ ___ कहा भी है-मधु, मद्य, नवनीत और मांस ये चार महाविकृति हैं, इनमें उसी वर्णके जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए व्रती मनुष्यको ये चारों ही कभी नहीं खाना चाहिए ।।५५।। अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् जिसमें अनेक प्रकारके प्राणियोंकी सन्तति निरन्तर उत्पन्न होती रहती है, वह नवनीत विचक्षण पुरुषोंको नहीं खाना चाहिए ॥५६।। जो निर्दय पुरुष अनेक प्रकारके प्राणिगणोंसे व्याप्त नवनीतको खाते हैं, उनके संयमका लेश भी नहीं है, ऐसा जानना चाहिए ॥५७।। जो एक भी प्राणीकी रक्षा करने में विचक्षण है, वह प्राणि-समहसे व्याप्त नवनीतको कैसे सेवन करेगा? अर्थात् कभी सेवन नहीं करेगा ॥५८।। ऊपर कही गई इन चारों महाविक्रतियोंमेंसे जो पुरुष एक भी विकृतिको स्वादके वशीभूत होकरके खाता है, वह पुरुष भी संसार-सागरमें निरन्तर परिभ्रमण करता है, तो फिर सभी विकृतियोंके खानेवालेकी तो कथा ही क्या कहना है ? वह तो संसार-सागरमें गोते खावेगा ही ॥५९॥ बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिए कि वह बड़, पीपल, प्लक्ष, काकोदुम्बर और ऊंबर वृक्षोंके फलोंको न खावे॥६०|| जिनमें अगणित स्थावर और लाखों त्रस प्राणी पाये जाते हैं वे पंच उदुम्बर वृक्षोंसे उत्पन्न फल व्रती पुरुषके द्वारा कभी नहीं खाये जाते हैं ॥६१।। जो अनेक जीवोंके समूहवाले क्षीरीफलोंको खाता है, उसे संसारमें पतन करानेवाला बहुत पाप लगता है ।।६२।। पंच उदुम्बर फलोंके भक्षणसे वंचित (ठगाये गये) पापी पुरुष प्राणि-समुदायके घात करनेवाले धीवरोंके साथ समानताको प्राप्त होते हैं ॥६३॥ भूखसे अत्यन्त पीड़ित और भक्षण करनेके योग्य वस्तुको नहीं प्राप्त करते हुए भी बुद्धिमान् मनुष्यको पीपल आदिसे उत्पन्न हुए अभक्ष्य फल नहीं खाना चाहिए ॥६॥ कहा भी है जो उदुम्बर फल समय पाकर सूख जाते हैं, उनके भीतर रहनेवाले जीव भी उनमें ही सूख जाते हैं, उन सूखे फलोंको भी खानेवाले पुरुषके विशिष्ट रागादिरूप हिंसा होती जो मनुष्य इन उदुम्बर और क्षीरी फलोंकी छाल, कन्द, पत्र (पुष्प) और फल खाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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