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________________ भावकाचार-संग्रह मबिन्दुलवास्वादाचे सत्त्वा प्रविदारिताः । पल्लीदाहेऽपि तावन्तो भवन्ति न भवन्ति हि ॥४७ पूर्वभाषितम्भक्षिकाग सम्भूतबालाण्डकनिपीडनात् । जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कलिलाकृति ॥४८ जग्घं मध्वौषधेनापि नरकाय न संशयः । गुडेनामा न कि मृत्युहेतवे भक्षितं विषम ॥४९ प्रस्फुरन्मक्षिकालक्षनिष्ठचूतं जन्तुघातजम् । अहो केचित्प्रशंसन्ति मधु श्राद्धादिकर्मणि ॥५० सरघावदनविनिर्गतलालाविलमखिलतन्मलाविष्टम् । माक्षिकमिदमति निन्द्यं कथमत्र प्राश्यते सद्भिः ॥५१ उक्तं च-अमृतचन्द्रसूरिभिः मधुशकलमपि प्रायो मधुकरहिंसात्मकं भवति लोके। भजति मधु मूढधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥५२ स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात्।।५३ मध्वास्वादनलोलुपो द्विजवरः पुष्पाभिधे पत्तने प्रापन्नाशमवश्यमुद्धतमतिः साधं स्वपुत्रादिभिः । प्राणान्तेऽपि ततो यियासुभिरलं लोकं परं धार्मिकैः पापप्रापकमापदां पदमिदं नो भक्षणीयं मध।।५४ मधु-भक्षणसे उत्पन्न पापकी तुलना सात गाँवोंको जलाने से उत्पन्न होनेवाले पापके साथ करते हैं ॥४६॥ ___ कहा भी है-मधुकी एक बिन्दुके लेश मात्र स्वादसे जितने प्राणी मारे जाते हैं, उतने प्राणियोंका विनाश एक पल्ली (छोटे ग्राम) के जलाने में भी नहीं होता नहीं होता है ॥४७॥ .. पूर्व पुरुषोंने भी कहा है-मक्खियोंके गर्भसे उत्पन्न हुए बाल-अण्डोंके निचोड़नेसे उत्पन्न हुए और कलल की आकृतिवाले मधुको सन्त पुरुष कैसे सेवन करते हैं ॥४८॥ औषधिके साथ खाया गया भी मधु नरकके लिए होता है, इसमें कोई संशय नहीं है। गुड़के साथ खाया गया विष क्या मृत्युके लिए नहीं होता ॥४९॥ जो उड़ती-फिरती लाखों मक्षिकाओंका वमन है और प्राणियोंके घातसे उत्पन्न होता है, ऐसे मधुकी कितने ही लोग श्राद्ध आदि कार्यमें प्रशंसा करते हैं, यह आश्चर्य है ॥५०॥ मधुमक्खियोंके मुखसे निकली हुई लारसे व्याप्त, उनके समस्त मल (विष्टा) से संयुक्त इस अतिनिन्द्य मधुकी सन्त पुरुष इस लोकमें कैसे प्रशंसा करते हैं ? यह आश्चर्य है ॥५१॥ श्री अमृतचन्द्र सूरिने भी कहा है-इस लोकमें मधुका कण भी प्रायः मधु-मक्खियोंकी हिंसा रूप ही होता है, अतः जो मूढ़ बुद्धि पुरुष मधुको खाता है, वह अत्यन्त हिंसक है ॥५२।। जो पुरुष मधुके छत्तेसे स्वयं ही गिरी हुई मधुको खाता है, अथवा धुंआ आदि करके उन मधु-मक्खियोंको उड़ाकर छलसे मधुको छत्तेसे निकालता है उसमें भी मधु-छत्तेके भीतर रहनेवाले छोटे-छोटे प्राणियोंके घातसे हिंसा होतो ही है ।।५३।। पुष्प नामके नगरमें मधुके आस्वादनका लोलुपी उद्धत बुद्धि ब्राह्मण अपने पुत्रादिके साथ अवश्य ही नाशको प्राप्त हुआ। इसलिए प्राणोंका अन्त होनेपर भी उत्तम परलोकको जानेके इच्छुक धार्मिक जनोंको पाप-प्रद और आपदाओंका पद यह मधु नहीं खाना चाहिए ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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