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________________ श्रावकाचार-सारोबार अल्पसङ्कशतः सौख्यं यद्यत्राभिलषेत्सुखम् । तदात्मनोऽप्रियं क्वापि भास्म कार्षीत् परे बुधः ॥३६ सुकृतादुपलभ्य सत्सुखं मनुजो द्वेष्टितदेव दुष्टधीः । श्रमशान्तिमवाप्य शालतस्तमपि छेत्तुमितः समोहते ॥३७ धर्मार्थकामेषु च यस्य न स्यादेकोऽपि लोके नियतं पुमर्थः । जीवन्मृतो विश्ववसुन्धरायाः स भारभूतो मनुजोऽधमश्च ॥३८ धर्माय स्पृहयालुर्यः परतो वा स्वतोऽथवा मनुजः । स स्याद्विदुषामाद्यो विपरीतस्तु द्रुतं निन्द्यः ॥३९ स्वस्य हितमभिलषन्तो मुञ्चन्तश्चाहितं विचारज्ञाः । कथमिव खादन्ति जनाः परघातसमुद्भवं मांसम्॥४० मैरेयमांसमाक्षिकमक्षणतो यदि च जायते धर्मः । तहि कुतोऽधर्मः स्यादुर्गतिविनिबन्धनं किंवा॥४१ उक्तं च-- स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्रनागतिः ॥४२ मांसाशिषु दया नास्ति न शौचं मद्यपायिषु। धर्मभावो न मर्येषु मधू दुम्बरसेविषु ॥४३ सम्मूच्छितानन्तशरीरिवर्गसङ्कीर्णमुच्चारनिभं घृणाढयम् । श्वभ्राध्वपाथेयममेयबुद्धिः को भक्षयेन्मांसमनर्थमूलम् ।।४४ माक्षिकं मक्षिकालक्षक्षत भक्षयनरः । निःसंशयमवाप्नोति नरकोत्सङ्गसङ्गतिम् ॥४५ ग्रामसप्तकदाहोत्थैः पापैः कुर्वन्ति तुल्यताम् । मधुभक्षणसञ्जातं पापं पूर्वमहर्षयः॥४६ यदि कोई मनुष्य अल्प संक्लेशसे सरलता पूर्वक इस लोकमें सुख चाहे तो उस बुद्धिमान को चाहिए कि जो बात अपने लिए अप्रिय है, वह कभी भी दुसरेके साथ न करे ॥३६॥ सुकृत (धर्म या पुण्य) से उत्तम सुख पाकर दुष्ट बुद्धि मनुष्य उसी सुकृतसे द्वेष करता है, वृक्ष शाखाकी छायासे श्रमकी शान्तिको पाकर वह उसीको ही काटनेकी इच्छा करता है ॥३७॥ जिस मनुष्यके इस लोकमें धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में से एक भी पुरुषार्थ नहीं है, वह मनुष्य निश्चयसे जीता हुआ भी मृतकके समान है, वह अधम पुरुष तो इस सारी वसुन्धराके लिए भारभूत ही है ॥३८॥ जो मनुष्य स्वयं अथवा परसे धर्मको इच्छा करता है, वह विद्वानोंमें अग्रणी है, जो इससे विपरीत है, वह निश्चयसे निन्दनीय है ॥३९।। जो अपने हितकी अभिलाषा करते हैं, और अहितको छोड़ना चाहते हैं वे विचारशील मनुष्य परके धातसे उत्पन्न होनेवाले मांसको कैसे खाते हैं ? यह आश्चर्य है ।।४०।। यदि मदिरा, मांस और मधुके भक्षणसे धर्म होता है, तो फिर अधर्म किससे होता है और दुर्गतिका कारण क्या शेष रहता है ॥४१॥ कहा भी है-वही धर्म है, जिसमें अधर्म नहीं है, वही सुख है, जिसमें दुःख नहीं है, वही ज्ञान है, जिसमें अज्ञान नहीं है और वही गति है जहाँसे आगति (आगमन) नहीं है ॥४२॥ मांसके खानेवालोंमें दया नहीं होती है, मद्यपान करने वालोंमें पवित्रता नहीं होती है, और मधु एवं उदुम्बर फलोंके सेवन करनेवाले पुरुषोंमें धर्मभाव नहीं होता है ॥४३॥ जो सम्मूच्छिम अनन्त प्राणियोंके समूहसे व्याप्त है, विष्टाके तुल्य है, घृणाके योग्य है, नरक में ले जानेके लिए मार्गका भोजन है और अनर्थोंका मूलकारण है ऐसे मांसको विशाल बुद्धिवाला मनुष्य खावेगा ? अर्थात् कोई बुद्धिमान् मनुष्य नहीं खावेगा ॥४४॥ लाखों मक्खियोंके घातसे उत्पन्न होनेवाले माक्षिक (मधु) को खाता हुआ मनुष्य निःसन्देह नरककी गोदकी संगतिको प्राप्त होता है, अर्थात् नियमसे नरक जाता है ॥४५॥ प्राचीन महर्षिजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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