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________________ श्रावकाचार-संग्रह ये भक्षयन्त्यात्मशरीरपुष्टिमभीप्सवो मांसमलम्बयन्ते । स्युतिका भक्षकमन्तरेण यन्नात्र दृष्टो वषकः कदाचित् ॥२७ मन्नानि मिष्टान्यपि यत्र विष्टा भवन्ति मूत्राण्यमृतानि तानि । तस्याप्यसारस्य शरीरकस्य कृते कृती कस्तनुयावधौघम् ॥२८ मांसाशने यस्य विचारसारविहीनबुद्धवंरिवत्ति वाञ्छा। स शाकिनीसङ्घ इवाघधाम पदे पदे वाञ्छति देहिघातम् ॥२९ बुभुक्षते यः पिशितं दुरात्मा भोज्यं विमुक्त्वा जनितोरसौख्यम् । सुधारसं हस्तगतं निरस्य स खादितुं वाञ्छति कालकूटम् ॥३० पलाशने दोषलवोऽपि नास्ति यः प्रोच्यते पापकलङ्कलोढः । गुरुकृतास्तैकसिंहगृद्धकोलेयकव्याघ्रशृगालभिल्लाः ॥३१ उक्तं च-अमृतचन्द्रसूरिभिरार्याचतुष्टये-- न विना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात्प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥३२ यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाभितनिगोतनिर्मथनात् ॥३३ आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥३४ आमां व पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥३५ जो मनुष्य अपने शरीरकी पुष्टिकी अभिलाषासे मांसको खाते हैं, वे प्राणियोंके घातक ही हैं. क्योंकि मांस-भक्षण करनेवालेके विना जीव-वध करनेवाला इस लोकमें कभी नहीं देखा गया ॥२७॥ जिस शरीरके निमित्तसे खाये गये मिष्टान्न भी विष्टा हो जाते हैं और पिया गया अमृत भी मूत्र बन जाता है, उस निःसार शरीरके पोषणके लिए कौन कृती पुरुष पापके समूहरूप मांसको खावेगा? कोई भी नहीं खावेगा ।।२८|| उत्तम विचारोंसे विहीन बुद्धिवाले जिस पुरुषकी इच्छा मांसके खाने में रहती है वह शाकिनी-डाकिनी-समूहके समान पद-पदपर पापके स्थानभूत जीवघातको करना चाहता है ।।२९।। जो दुष्टात्मा बहुसुखको देनेवाले उत्तम भोज्य पदार्थोको छोड़कर मांस खानेकी इच्छा करता है, वह मानों हाथमें आये हुए अमृत रसको छोड़कर कालकूट विषको खानेकी इच्छा करता है, ॥३०॥ पापरूपी कीचड़से व्याप्त जो पुरुष यह कहते हैं कि मांसके खानेमें लेशमात्र भी दोष नहीं है, वे लोग वृक (भेड़िया), सिंह, गिद्ध, श्वान, व्याघ्र, शृगाल और भीलोंकी संख्या बढ़ा रहे हैं ॥३१॥ इस विषयमें अमृतचन्द्रसूरिने चार आयां (गाथाएं) कही हैं-यतः प्राणिघातके बिना मांसकी उत्पत्ति संभव नहीं है, अतः मांसको सेवन करनेवाले पुरुषके अनिवार्यरूपसे हिंसा होती ही है ॥३२॥ और जो स्वयं ही मरे हुए भैंसे बैल आदिका मांस है, उसके सेवन करने में भी उस मांसके आश्रित निगोदिया जीवोंके विनाशसे हिंसा होता है ।।३३।। कच्ची, पकी या पक रही मांसकी पेशियों (डलियों) में तज्जातीय निगोदिया जीवोंकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है ।।३४।। अतः जो जीव कच्ची या पकी मांस-पेशीको खाता है, अथवा स्पर्श भी करता है वह अनेक कोटि जीवोंके निरन्तर संचित पिण्डका घात करता है, अतः मांस सर्वथा अभक्ष्य है ।।३५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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