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________________ श्रावकाचार-संग्रह सर्वासामपि देवीनां दयादेवी गरीयसी। या ददाति समस्तेभ्यो जीवेभ्योऽभयदक्षिणाम् ॥१३१ यथेह मम जीवितं प्रियमदः प्रमोदप्रदं तथा खलु परस्य तद् भवति देहभाजोऽधिकम् । विचार्य सुखकाङ्क्षिणा सुकृतिनेति हिंसानिशं भयप्रचयदायिनी न मनसापि चिन्त्या क्वचित् ॥१३२ भूतेम्यो भयमारकम्पिततनुभ्यो योऽभयं भावतो दत्ते व्यक्तमतिविमुक्तिवनिताप्रीतिप्रियं भावुकम् । तेभ्यस्तस्य भयं न जातु यदिदं सर्वप्रसिद्धं वचो यादृग्दीयत एव तादृगवनौ सम्प्राप्यते प्रत्युत ॥१३३ दासीदासनिवासधान्यवसुधाधेनुस्फुरत्कन्यकारत्लस्वर्णधनादिदानमनिशं ये कुर्वते सर्वतः। भूयान्सः खलु ते जगज्जनमनोहर्षप्रकर्षप्रदं ये यच्छन्त्यभयं तु सन्ति यदि वा द्वित्रा न ते पञ्चषाः ॥१३४ निशातधारमालोक्य खङ्गमुत्खातमङ्गिनः। कम्पन्ते त्रस्तनेत्रास्ते नास्ति मृत्युसमं भयम् ॥१३५ प्राणिघात: कृतो देवपित्रथमपि शान्तये । न क्वचित् कि गुडश्लिष्टं न विषं प्राणिघातकम् ॥१३६ उक्तं च- हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशान्त्यै कृतापि हि। कुलाचारधियाप्येषा कृता कुलविनाशिनी ॥१३७ अपि शान्त्यै न कर्तव्यो बुधैः प्राणिवधः क्वचित् । यशोधरो न सञ्जातस्तं कृत्वा किमु दुर्गतिम् ॥१३८ उसने इस भूतलपर क्या नहीं दिया। अर्थात् सभी कुछ दिया ॥१३०।। सभी देवियोंमें दयादेवी गौरवशालिनी है, जो कि समस्त जीवोंके लिए अभयदानकी दक्षिणा देती है ।।१३१॥ जैसे मेरा जीवन मुझे प्रिय और प्रमोद-प्रद है, निश्चयसे वह दूसरे जीवको भी अधिक प्रिय और आनन्ददायक है । ऐसा विचारकर सुखके आकांक्षी सुकृती पुरुषको निरन्तर भय-समूहकी देनेवाली हिंसा कभी भी कहीं मनसे भी नहीं चिन्तवन करनी चाहिए ॥१३२।। जो विशाल बुद्धिवाला मनुष्य भयकी मारसे कम्पित शरीरवाले जीवोंके लिए भावोंसे मुक्ति-वनिताकी प्रीतिका प्रिय भव्य अभयदान देता है, उसे उन जीवोंसे कभी भी भय नहीं होता है। क्योंकि यह वचन जगत्में सर्व-प्रसिद्ध है कि जो इस भूमण्डलमें जैसा देता है, बदले में वैसा ही प्राप्त करता है ॥१३३॥ जो निरन्तर दासी, दास, निवास (मकान), धान्य, पृथ्वी, धेनु, सुन्दर कन्या, रत्न, सुवर्ण और धनादिका सर्व ओर दान करते हैं, ऐसे लोग संसारमें निश्चयसे बहुत हैं। किन्तु जो जगत्के जनोंके मनोंको हर्षातिरेक देनेवाला अभयदान देते हैं, वे इस संसारमें दो-तीन ही हैं, वे पांच-छह भी नहीं हैं ॥१३४|| तीक्ष्ण धारवाली उठाई हुई तलवारको देखकर प्राणी चंचल नेत्रवाले होकर कांपने लगते हैं, क्योंकि-मरणके समान दूसरा कोई भय नहीं ॥१३५॥ देवता और पितरोंकी शान्तिके लिए किया गया प्राणिघात कभी भी शान्तिके लिए नहीं होता; गुड़से मिला हुआ भी विष क्या प्राणियोंके प्राणोंका घातक नहीं होता है ? अवश्य ही होता है ।।१३६।। कहा भी है-विघ्नोंकी शान्तिके लिए की गई भी हिंसा विघ्नोंके लिए ही कारण होती है । कुलके आचार-विचारसे की गई भी हिंसा कुलका हो विनाश करनेवाली होती है ।।१३७।। ज्ञानियोंको शान्तिके लिए भी कभी प्राणि-वध नहीं करना चाहिए। यशोधर राजा उसे करके क्या दुर्गतिको प्राप्त नहीं हुआ ? अवश्य ही हुआ है ।।१३८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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