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अथ तृतीयः परिच्छेदः सम्यकसुभद्राहितचित्तवृत्तिजयाश्रयो बाहुबलीशपूज्यः ।
वासाधरः धीभरतोपमोऽसौ जयत्यनिन्द्योचमलब्धलक्ष्मीः ॥ भन्यविधूतहम्मोहैविश्वतत्त्वार्थकोविदः । प्रकम्परहितैः सम्यक् चारित्रमवलम्ब्यताम् ॥१ अज्ञानपूर्वकं सम्यग्वृत्तं नाप्नोति यज्जनः । संज्ञानानन्तरं प्रोक्तं वृत्तस्याराधनं ततः ॥२
समस्तसावधवियोगतः स्याच्चारित्रमत्रोत्तमसौख्यपात्रम् ।
तत्पश्चधा जितकामशस्त्रैरवाहिसावतभेदभावात् ॥३ उक्तंच- रागद्वेषनिवृत्तेहिसादिनिवतंना कृता भवति ।
अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥४ सकलविकलभेदा ज्ञाततत्त्वार्थसार्था द्विविधमिदमवद्यध्वंसकं वृत्तमाहुः ।
सकलममलबोधाधिष्ठितानां मुनीनां विकलमिह गृहस्थाचारभाजा नराणाम् ॥५ अथ-मैरेयपललक्षौद्रपञ्चोदुम्बरवर्जनम् । व्रतं जिघृक्षणा पूर्व विधातव्यं प्रयत्नतः ॥६
सीधुपानविवशीकृतचित्तं चेतना त्यजति तत्क्षणतोऽपि ।
दुर्भगत्वहृतशस्तगुणोघं कान्तमुज्ज्वलगुणेव मृगाक्षी ॥७ श्री भरत चक्रवर्तीकी उपमावाला यह वासाधर जयवन्त है। जैसे भरत चक्रवर्ती सुभद्रानामको पट्टरानीमें संलग्न चित्त वृत्तिवाले थे, जयकुमार नामक सेनापतिसे आश्रित थे, बाहुबली (भुजाओंमें बलके धारक) राजाओंके स्वामी थे और निर्दोष उद्यमसे राज्यलक्ष्मीको प्राप्त थे, उसी प्रकार यह वासाधर भी सम्यक् प्रकारसे सुभद्र (उत्तम मंगलकार्य) में संलग्न चित्तवृत्ति वाला है, विजयका आश्रय है, बाहुबलशालो लोगोंके स्वामियोंसे पूज्य है और निर्दोष उद्यम-व्यापारसे लक्ष्मीको प्राप्त है।
जिन्होंने दर्शन मोहनीय कर्मको नष्ट कर दिया है, जो समस्त तत्त्वोंके अर्थ जाननेवाले हैं और चारित्र मोहके प्रकम्पसे रहित हैं, ऐसे भव्य पुरुषोंको सम्यक् चारित्रका अवलम्बन करना चाहिए ॥१॥ यतः मनुष्य अज्ञानपूर्वक सम्यक् चारित्रको प्राप्त नहीं कर सकता है, अतः सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर हो चारित्रका आराधन करना कहा गया है ।।२।। समस्त प्रकारके सावद्ययोगोंके त्यागसे इस लोकमें उत्तम सुखका पात्र चारित्र प्राप्त होता है। कामरूप शस्त्रोंसे रहित वीतरागी जिनेन्द्र देवोंने मूल एक अहिंसावतके भेद-भावसे उसे पाँच प्रकारका कहा है ॥३॥
_ कहा भी है-राग-द्वेषको निवृत्तिसे हिंसादि पापोंकी निवृत्ति होती है। क्योंकि, धनकी अभिलाषासे रहित कौन पुरुष राजाओंकी सेवा करता है ॥४॥
तत्त्वार्थ-समूहके जाननेवाले आचार्योंने सम्यक चारित्रके सकल और विकल ऐसे दो भेद कहे हैं । यह दोनों हो भेदवाला चारित्र पापोंका विध्वंसक है। इनमें सकल चारित्र निर्मल ज्ञानसे युक्त मुनिजनोंके होता है और विकल चारित्र गृहस्थीके आचार-धारक मनुष्योंके होता है ।।५।। श्रावक व्रतको ग्रहण करनेके इच्छुक पुरुषको सबसे पहिले मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंके खानेका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए ॥६॥ मदिरापानसे परवश चित्तवाले मनुष्यको चेतना क्षण मात्रमें उसी प्रकार छोड़ देती है जिस प्रकार मृगनयनी स्त्रो दुर्भाग्यसे विनष्ट गुणवाले
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