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________________ श्रावकाचार-संग्रह वारुणीरसनिरासितबुद्धेः प्राणिनः पृथुचतुःपथभूमी। मण्डला निपतितस्य समन्तान्मूत्रयन्ति वदने विवराभे ॥८ आसवोद्धतपिशाचगृहीतश्चत्वरे निपतितो मललिप्तः । गूढमात्महितभावमलज्जो लीलयैव कथयत्यपवस्त्रः ॥९ पानतः क्षणतया मदिरायाः कान्तिकोत्तिमतयो मनुजानाम् । सम्पदो बहुविधा नृपतीनां दुर्नयादिव विनाशमयन्ते ॥१० भूतले विलुलितालकचक्राक्रान्तवक्त्रकुहरो विधुरधीः । लोलुठोति च सदा घनदाघोद्यज्ज्वरातनरवन्मदिरापः ॥११ रुन्धन्तीन्द्रियविकासमशेषं विग्रहे शिथिलतां जनयन्ती। चेतनत्वमदयं विहरन्ती वारुणी भवति किं न विषाभा ॥१२ रारटीति विकटं सशोकवद बम्भ्रमीति परितो ग्रहार्तवत् । मोमुषीति परवस्तु चौरवद् बोभुजीति जननी स्वदारवत् ॥१३ कम्पते पूत्करोत्युच्चीदते खिद्यते तराम् । रोदिति स्खलति श्वासं मुञ्चत्येष पदे पदे ॥१४ गायति भ्रमति श्लिष्टं वक्ति धावति रौति च । हन्ति स्वं च परं मद्यमूढो वेत्ति न चाहितम् ॥१५ अवद्यशतसङ्कला खलु निषेव्यमाना सुरा विमोहयति मानसं दृढधिमोहितस्वान्तकः । विमुञ्चति शुभं परं वत विमुक्तधर्मो वधं करोति कृतहिंसने भवति नारकस्तत्क्षणात् ॥१६ पतिको छोड़ देती है ॥७॥ वारुणी-(मदिरा) रस-पानसे विनष्ट बुद्धिवाले और विशाल चौराहोंपर पड़े हुए मनुष्यके विवर (गर्त) के समान खुले हुए मुखमें कुत्ते सर्व ओरसे आकर मूतते हैं ॥८॥ मद्य-पानसे उद्धत पिशाचसे ग्रसित, चबूतरेपर पड़ा हुआ, मल-लिप्त, वस्त्र-रहित निर्लज्ज मनुष्य अपने हृदयके गूढभावोंको लीलामात्रमें ही कह देता है ॥९॥ मदिराके पानसे मनुष्योंकी कान्ति, कीति, बुद्धि और नाना प्रकारको सम्पत्तियां राजाओंको दुर्नीतिके समान क्षणमात्रमें विनाशको प्राप्त हो जाती हैं ॥१०॥ मदिराको पीनेवाला मनुष्य शोभा-रहित होकर भूतलपर इस प्रकारसे लोटता है, जिस प्रकार कि प्रबल दाहसे बढ़ते हुए ज्वरवाला मनुष्य भूमिपर लोटता है । उस समय उसके इधर-उधर उड़ते शिरके बालोंके समूहसे उसका मुख रूप कोटर व्याप्त हो जाता है ।।११।। जो इन्द्रियोंके सम्पूर्ण विकासको रोक देती है, शरीरमें शिथिलता उत्पन्न करती है और चेतनताको निर्दयता पूर्वक हरण कर लेती है, ऐसी वारुणी (मदिरा) क्या विषके समान नहीं है ? अर्थात् विषके ही सदृश है ॥१२॥ मदिरा पीनेवाला मनुष्य शोक-युक्त पुरुषके सदृश विकट रूपसे रोता-चिल्लाता है, ग्रह-पीडितके समान चारों ओर घूमता है, चोरके समान परवस्तुको चुराता है और अपनी स्त्रीके समान माताके साथ विषय-सेवन करता है ॥१३।। मद्य-पायी पुरुष कभी कंपता है, कभी उच्चस्वरसे चिल्लाता है, कभी हर्षित होता है, कभी अत्यन्त खेद-खिन्न होता है, कभी रोता है, कभी इधर-उधर गिरता-पड़ता है और पद-पदपर दीर्घश्वासें छोड़ता है ।।१४।। मद्यसे मूढ़ नर गाता है, परिभ्रमण करता है, अश्लील बोलता है, दौड़ता है, रोता है, अपने और दूसरेका घात करता है और अपने हितको नहीं जानता है ।।१५।। यह सुरा सैकड़ों पापोंसे व्याप्त है, इसका सेवन मनको विमोहित कर देता है, इससे विमोहित चित्तवाला मनुष्य सभी शुभ कार्य छोड़ देता है, फिर धर्मको छोड़कर वह जीवघात करने लगता है, और जीव-घात करनेपर वह मरण कर क्षणभरमें नारकी बन जाता है ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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