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________________ ३३० श्रावकाचार-संग्रह तदनुयोगाश्चत्वारः । ते च यथायत्र जिनादिविचित्रोत्तमपुरुषचरित्रकीर्तनं पुण्यम् । प्रथमानुयोगमसमज्ञानं मुनयस्तमाल्यान्ति ॥८ नरकद्वीपपयोनिधिगिरिवरसुरलोकवातवलयानाम् । परिमाणादिप्रकटनदक्षः करणानुयोगोऽयम् ॥९ व्रतसमितिगुप्तिलक्षणचरणं यो वदति तत्फलं चापि। चरणानुयोगमसमज्ञानं तज्ज्ञानिनो जगदुः ॥१० षड्दव्यनवपदार्थास्तिकायसहितानि सप्ततत्त्वानि । द्रव्यानुयोगदीपो विमलः सम्यक प्रकाशयति ॥११ शोकानोकहखण्डनैकपरशुं विश्वप्रकाशोल्लसदीपं चारुविवेककेलिसदनं सौजन्यसञ्जीवनम् । स्फूर्जत्कीतिलताजलं प्रसृमराहङ्कारशकाहरं बोध मुक्तिवधूविबोधजनकं सन्तः श्रयन्तु श्रिये ॥१२॥ इति सम्यग्ज्ञानवर्णनम् । इति श्री श्रावकाचारसारोद्धारे श्री पद्मनन्दिमुनिविरचिते वासाधरनामाङ्किते साङ्गसम्यग्ज्ञानवर्णनं नाम द्वितीयः परिच्छेदः इस सम्यग्ज्ञानके चार अनुयोग हैं, जो इस प्रकार हैं-जिसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि अनेक प्रकारके उत्तम पुरुषोंके चरित्रोंका कथन हो, पुण्यका वर्णन हो, उसे मुनिजन विशिष्ट ज्ञानवाला प्रथमानुयोग कहते हैं ।।८।। नरक, द्वीप, समुद्र, कुलाचल, सुमेरु, देवलोक और वातवलयोंके परिमाण आदिको प्रकट करने में दक्ष यह करणानुयोग है ॥९॥ व्रत, समिति, गुप्तिस्वरूप चारित्र और उसके फलको जो कहता है, उसे चरणानुयोगके ज्ञाता मुनिजन विशिष्ट ज्ञानरूप चरणानुयोग कहते हैं ॥१०॥ द्रव्यानुयोगरूपी निर्मल दीपक छह द्रव्य, नव पदार्थ, पंच अस्तिकाय सहित सप्त तत्त्वोंको सम्यक् प्रकारसे प्रकाशित करता है ॥११॥ जो सम्यग्ज्ञान शोकरूपी वृक्षको काटने के लिए अद्वितीय परशु (कुठार) के सदृश है, संसारके प्रकाश करनेके लिए प्रकाशमान या प्रज्वलित दीपक है, विवेकरूपी केलि करनेका सुन्दर भवन है, सज्जनताका संजीवन है, कीतिरूपी लताको बढ़ानेके लिए जलस्वरूप है, बढ़ते हुए अहंकार और शंकाको दूर करने वाला है, मुक्तिरूपी वधूके प्रबोधका जनक है, ऐसे सम्यक् बोधको सन्तजन लक्ष्मीको प्राप्तिके लिए आश्रय करें ॥१२॥ यह सम्यग्ज्ञानका वर्णन है। इति श्रीपद्मनन्दि मुनिविरचित वासाधरनामसे अंकित श्रावकाचारसारोद्धार में अंगसहित सम्यग्ज्ञानका वर्णन करनेवाला दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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