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________________ अथ द्वितीयः परिच्छेदः आप्तोपज्ञमहागमावममतो विद्वान् सुपात्रावलीशुद्धान्नाद्यतिसर्जनादिनयतो नित्यं वदान्यग्रणीः । मिथ्यात्वादिनिराकृतेरमलिनः सद्-दृष्टिरुयद्दयः प्राणित्राणविधानतो विजयते लोकेऽत्र वासाधरः ॥ इत्थमात्मनि संरोप्य सम्यक्त्वं मुक्तिकाझिभिः । समुपास्यं ततः सम्यग्ज्ञानमाम्नाययुक्तिभिः ॥१॥ एककालादपि प्राप्तजन्मनोदृष्टिबोषयोः । पृथगाराधनं प्रोक्तं भिन्नत्वं चापि लक्षणात् ॥२ सम्यग्ज्ञानं मतं कार्य सम्यक्त्वं कारणं यतः । ज्ञानस्याराधनं प्रोक्तं सम्यक्त्वानन्तरं ततः ॥३ दीपप्रकाशयोरिव सद्दर्शनबोधयोजिना जगदुः । कारणकार्यविधानं समकालं जातयोरपि ॥४ संशयविमोहविभ्रमरहितं तत्वेषु यत्परिज्ञानम् । तज्ज्ञानं यतिपतयः सम्यग् जगदुत्तमा जगदुः ।।५ उक्तं च-त्रैकाल्यं त्रिजगत्तत्त्वे हेयादेयप्रकाशनम् । यत्करोतीह जीवानां सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥६ प्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥७ ___ जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्ररूपित महान् आगमके ज्ञानसे जो विद्वत्ताको प्राप्त है, उत्तम पात्रोंकी पंक्तिको शुद्ध अन्न प्रदान करनेसे साधुओंका सर्जन करता है, नित्य गुणी जनोंकी विनय करनेसे विनयी पुरुषोंमें अग्रणी है, मिथ्यात्व आदिके निराकरण कर देनेसे निर्मल सम्यग्दर्शनका धारक है और प्राणियोंकी रक्षा करनेसे जिसका दयाभाव उत्तरोत्तर उदयको प्राप्त हो रहा है, ऐसा वासाधर नामक साहु इस लोकमें विजयवन्त रहे ।। इस प्रकार अपनी आत्मामें सम्यक्त्वको भली भांतिसे धारण करके तदनन्तर मुक्तिको आकांक्षा रखनेवाले श्रावकोंको आम्नायकी युक्तियोंसे सम्यग्ज्ञानकी सम्यक् प्रकार उपासना करनी चाहिए ॥१॥ यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक कालमें ही उत्पन्न होते हैं, तथापि सम्यग्ज्ञानको पृथक् रूपसे ही आराधना करना कहा गया है, क्योंकि लक्षणसे दोनोंमें भिन्नता है ॥२॥ यतः सम्यग्ज्ञान कार्य माना गया है और सम्यक्त्व उसका कारण है, अतः सम्यक्त्व प्राप्तिके पश्चात् ज्ञानकी आराधना करनेका उपदेश दिया गया है ॥३॥ जिस प्रकार एक साथ उत्पन्न होनेवाले दीपक और प्रकाशमें कार्य-कारण भाव है अर्थात् दीपक कारण है और प्रकाश उसका कार्य है, इसी प्रकार एक साथ उत्पन्न होनेपर भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें कारण और कार्यका विधान श्रीजिनेन्द्रदेवने कहा है ॥४|| संशय, विमोह और विभ्रमसे रहित जो जीवादि सप्त तत्त्वोंका परिज्ञान है उसे यति-पति और लोकोत्तम जिनेन्द्रोंने सम्यग्ज्ञान कहा है ॥५॥ कहा भी है जो जीवोंको त्रिकाल और त्रिजगत्में तत्त्वोंके हेय और उपादेयका प्रकाश करता है, वह सम्यग्ज्ञान कहा जाता है ।।६।। मूलग्रन्थ, उसका अर्थ, और इन दोनोंका पूर्ण शुद्धिके साथ धारण करना, विनय करना, बहुमानके साथ निह्नव-रहित होकर सम्यग्ज्ञानका आराधन करना चाहिए, अर्थात् सम्यग्ज्ञानकी आराधनाके आठ अंग हैं-१. ग्रन्थाचार, २. अर्थाचार, ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५ विनयाचार, ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार और ८. अनिह्नवाचार । (इनका विशेष अर्थ पुरुषार्थसिद्धयुपायमें इसी श्रावकाचार संग्रहके प्रथम भागमें पृ० १०२ पर दिया गया है, वहाँसे जानना चाहिए) ॥७॥ ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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