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________________ ३१६ श्रावकाचार-संग्रह सूर्योर्घो गृहवेहलीवटगजास्त्राश्वादिसंपूजनं गोमूत्रापरगात्रवन्दनमकूपारापगामज्जनम् । पञ्चत्वाप्तजलादिदानमनिशं स्नानं च सङ्क्रान्तिषु प्रायो लोकविसूढिता निगदिता संसारसंर्वाधनी ॥ ७४६ ततन्मन्त्रमहोषघोद्धत कलाव्यामोहितप्राणिनां मिथ्याशास्त्रविचारवचितषियां दुर्ध्यानलीनात्मनाम् । स्नेहाशाभयलोभतः कुतपसां पाखण्डिनां यादरात् शुश्रूषा गुरुमूढतेति गदिता सा शोललीलाधरैः ॥७४७ तुषखण्डनतः क्वापि कणलाभः प्रजायते । नैषां शुश्रूषणं नृणां शुभारम्भाय भाव्यते ॥७४८ उक्तं चमिथ्यादृष्टिर्ज्ञानं चरणममीभिः समाहितः पुरुषः । दर्शन कल्पद्रुमवनवह्निरिवेदं त्वनायतनमुह्यम् ॥७४९ ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वषुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥७५० इत्यादि दूषणैर्मुक्तं मुक्तिप्रीतिनिबन्धनम् । सम्यक्त्वं सम्यगाराध्यं संसार भयभीरुभिः ॥७५१ न सम्यक्त्वात्परो बन्धुनं सम्यक्त्वात्परं सुखम् । न सम्यक्त्वात्परं मित्रं न सम्यक्त्वात्परो गुणः ॥१७५२ देना, घरकी देहली, वट वृक्ष, हाथी, अस्त्र-शस्त्र और अश्व आदिका पूजन करना, गायके मूत्रको पवित्र मानना, गायके पिछले शरीर भागकी वन्दना करना, समुद्र नदी आदिमें स्नान करना, मरण को प्राप्त पूर्वजनोंको नित्य जल, अन्न पिण्ड आदि प्रदान करना, और मकर संक्रान्तिमें स्नान करना, , तथा इसी प्रकारके प्रायः अन्य लोक-प्रचलित एवं संसारको बढ़ानेवाली क्रियाएँ करना लोकमूढ़ता कही गई है || ७४६ || अनेक प्रकारके लौकिक कार्योंको सिद्ध करनेवाले उन-उन मंत्रोंसे, महान् औषधियोंसे और उद्धत कलाओंसे प्राणियोंको मोहित करनेवाले, मिथ्यात्ववर्धक खोटे शास्त्रोंके विचारसे वंचित बुद्धि वाले, खोटे ध्यानमें जिनकी आत्माएँ लीन हैं, ऐसे खोटे तप करनेवाले पाखण्डी गुरुओं में स्नेह, आशा, भय और लोभके वशीभूत होकर जो आदरसे उनकी सेवा-शुश्रूषा की जाती है, उसे शीलकी लीलाके धारक गुरुजनोंने गुरुमूढ़ता कहा है || ७४७ ॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि तुषके कूटनेसे कहीं पर कणका मिलना संभव है, किन्तु उक्त प्रकारके कुगुरुओंकी शुश्रूषा करनेसे मनुष्यों का शुभ आरंभ संभव नहीं है ||७४८ ॥ कहा भी है- मिथ्या दर्शन मिथ्या ज्ञान, मिथ्या चारित्र और इनसे संयुक्त पुरुष ये छहों अनायतन सम्यग्दर्शन रूपी कल्प वृक्षोंके वनको जलानेके लिए अग्निके समान जानना चाहिए ।। ७४९|| ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठके आश्रयसे अभिमान करने को मद-रहित वीतराग देव स्मय या मद कहते हैं ।।७५० ।। इत्यादि दूषणोंसे विमुक्त और मुक्तिकी प्रीतिके कारणभूत सम्यक्त्व की संसारके भयसे डरने वाले मनुष्योंको सम्यक् प्रकारसे आराधना करनी चाहिए ।। ७५१ । । इस संसार में सम्यक्त्वसे बड़ा कोई बन्धु नहीं है, सम्यक्त्वसे श्रेष्ठ कोई सुख नहीं है, सम्यक्त्वसे श्रेष्ठ कोई मित्र नहीं है और सम्यक्त्वसे बड़ा कोई गुण भी नहीं है || ७५२॥ जो मनुष्य सर्व दोषोंसे रहित, और आठ गुणोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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