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________________ ३२७ श्रावकाचार-सारोवार चिन्तामणिस्तस्य करे सुरद्रुमो गृहे घने कामगवीव सत्यलम् । कलङ्कमुक्तं खलु यो निषेवते गुणाष्टकोपेतमिदं सुदर्शनम् ॥७५३ चतुःषष्टिमहोनामधीशो भयजितः। तिर्यगादिगतिध्वंसी नरः सम्यक्त्वभूषितः ॥७५४ प्राणो द्वादशधा मिथ्यावासेषु भयदेषु च । उत्पद्यते न संशुद्धसम्यक्त्वाद्भुतभूषणः ॥७५५ उक्तंच- सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यग्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च वजन्ति नाप्यवतिका ॥७५६ ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोविजयविभवसनाथाः । महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ।।७५७ तीर्थकृच्चक्रवादिविभूति प्राप्य भासुराम् । नरः सम्यक्त्वमाहात्म्यात्प्राप्नोति परमं पदम् ॥७५८ सम्यक्वत्संयुते जोवे कचिदुःखं भयप्रदम् । भास्वता भासिते देशे न ध्वान्तमवतिष्ठति ॥७५९ किमत्र बहुनोक्तेन ये गता यान्ति जन्मिनः । मोक्षं यास्यन्ति तत्सर्व सम्यक्त्वस्यैव चेष्टितम् ।।.६० ते धन्यास्ते कृतार्थाश्च ते शरास्तेऽत्र पण्डिताः । यैः स्वप्नेऽपि न सम्यक्त्वं मुक्तिदं मलिनीकृतम् ॥७६१ ये केचित्कवयो नयन्ति नियतं चिन्तामणेस्तुल्यतां सम्यग्दर्शनमेतदुत्तमपदप्राप्त्यैकमन्त्राक्षरम् । सहित सम्यग्दर्शनका सेवन करते हैं, उनके हाथमें चिन्तामणि रत्न, घरमें कल्पवृक्ष और गोधनमें कामधेनु निश्चयसे विद्यमान जानना चाहिए ॥७५३॥ सम्यक्त्वसे भूषित मनुष्य तिर्यंच आदि दुर्गतियोंका विनाश कर भयरहित होकर चौसठ महाऋद्धियोंका स्वामी होता है ॥७५४॥ शुद्ध सम्य त्व रूप अद्भुत भूषण वाला जीव भय-प्रद बारह प्रकारके मिथ्यावासोंमें उत्पन्न नहीं होता है ।।७५५॥ कहा भी है-व्रत-रहित भी सम्यग्दर्शनसे शुद्ध जीव नारक, तिर्यंच, नपुंसक और स्त्री पर्यायमें उत्पन्न नहीं होता है । तथा वे दुष्कुल, विकृत शरीर, अल्प आयु और दरिद्रताको भी प्राप्त नहीं होते हैं ॥७५६।। सम्यग्दर्शनसे पवित्र जीव ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, विजय और वैभवसे संपन्न महान् कुल और महान् पुरुषार्थ वाले मानव तिलक होते हैं ।।७५७॥ सम्यक्त्वके माहात्म्यसे मनुष्य तीर्थकर, और चक्रवर्ती आदिकी भासुरायमन विभूतिको प्राप्त करके अन्तमें परम पद मोक्षको प्राप्त करता है ॥७५८॥ सम्यक्त्वसे संयुक्त जीवमें भय-प्रद दुःख कहाँ संभव है ? सूर्यसे प्रकाशित प्रदेशमें अन्धकार नहीं ठहरता है ॥७५९॥ इस विषयमें बहुत कथनसे क्या लाभ है ? संक्षेपमें यह जान लेना चाहिए कि भूतकालमें जितने जीव मोक्ष गये हैं, वर्तमानमें जा रहे हैं और भविष्यमें जावेंगे, वह सब सम्यक्त्वका ही वैभव है ॥७६०॥ वे पुरुष धन्य 1. वे कृतार्थ हैं, वे शूर-वीर है और वे ही पण्डित हैं जिन्होंने कि मुक्तिको देनेवाला अपना सम्यक्त्व स्वप्नमें भी मलिन नहीं किया है ॥७६१।। जो कोई कवि लोग उत्तम मोक्ष पदकी प्राप्तिके एक मात्र मंत्राक्षर रूप इस सम्यग्दर्शनकी चिन्तामणि रत्नसे तुलना करते हैं, वे सुमेरुकी परमाणुके साथ तुलना करते हैं, ऐसा मैं मानता हूँ। क्या अल्प बुद्धिवाले मनुष्योंको बुद्धियाँ कहीं भी सम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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