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________________ श्रावकाचार-सारोवार ३२५ निर्वेदादिमनोभावैर्दर्शनं तत्प्रशस्यते । तथाऽनायतनैर्दोषैः सन्देहाविनश्यति ॥७३४ देवे दोषोज्झिते धर्मे तथ्ये शास्त्रे हिते गुरौ । निर्ग्रन्थे यो तु रागः स्यात्संवेगः स निगद्यते ॥७३५ भोगे भुजङ्गभोगाभे संसारेऽपारदुःखदे । यद्वैराग्यं सरोगेऽङ्गे निर्वेदोऽसौ प्रवक्ष्यते ॥७३६ पुत्रमित्रकलत्रादिहेतोः कार्ये विनिर्मिते । दुष्टे योऽनुशयः पुंसो निन्दा सोक्ता विचक्षणैः ॥७३७ रागद्वेषादिभिजति दूषणे सुगुरोः पुरः । भक्त्या याऽऽलोचना गर्दा शार्हद्भिः प्रतिपाद्यते ॥७३८ रागद्वेषादयो दोषा यस्य चित्ते न कुर्वते । स्थिरत्वं सोऽत्र शान्तात्मा भवेद भव्यमचिका ॥७३९ सेवाहेवाकिनाकोशपूजाहेऽहंति सद्गुरौ । विनयाद्याः संपर्याद्यैः सा भक्तिर्व्यक्तमिष्यते ॥७४० साधुवर्गे निसर्गो यद्रोगपीडितविग्रहे । व्यावृत्तिर्भेषजाधैर्या वात्सल्यं तद्धि कथ्यते ॥७४१ प्राणिषु भ्राम्यमाणेषु संसारे दुःखसागरे । चित्तार्द्रत्वं दयालोर्यत्तत्कारुण्यमुदीरितम् ॥७४२ एतैरष्टगुणैर्युक्तं सम्यक्त्वं यस्य मानसे । तस्यानिशं गृहे वासं विधत्ते कमलामला ॥७४३ तथा दोषाश्च हेयाः । ते के ? इत्याहमूढत्रयं.मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥७४४ जगति भयकृतानां रागदोषाकुलानां मलकुलकलितानां प्राणिघातोद्यतानाम् । स्मरशरविधुराणां सेवनं देवतानां यदमितमतरयास्तद्देवमूढत्वमाहुः ।।७४५ उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये सम्यक्त्वके आठ गुण होते हैं ॥७३३॥ यह सम्यग्दर्शन निर्वेद आदि उक्त भावोंसे प्रशंसाको प्राप्त होता है, तथा अनायतन और शंका आदि दोषोंसे विनाशको प्राप्त होता है ॥७३४॥ दोष रहित-देवमें, अहिंसामय सत्य धर्ममें, हितकर शास्त्रमें और निर्ग्रन्थ गुरुमें जो अनुराग होता है वह संवेग कहा जाता है ।।७३५।। भुजंगके फण सदृश भोगोंमें, अपार दुःख देनेवाले संसारमें और सरोग देहमें जो वैराग्य होता है, वह निर्वेद कहलाता है ।।७३६।। पुत्र, मित्र, स्त्री आदि के निमित्तसे खोटा कार्य किये जानेपर मनुष्यको जो पश्चात्ताप होता है, उसे विचक्षण जनोंने निन्दा कहा है ॥७३७।। राग-द्वेषादिसे किसी दूषणके हो जानेपर सद्-गुरुके आगे भक्तिके साथ अपनी आलोचना की जाती है उसे अरिहन्त देव गहरे कहते हैं ||७३८। जिसके चित्तमें राग द्वष आदि दोष स्थिरता प्राप्त नहीं करते हैं वह भव्यशिरोमणि उपराम भावसे युक्त प्रशान्तात्मा कहलाता है ॥७३९।। सेवा करने में आग्रह रखनेवाले देवेन्द्रोंके द्वारा पूजाके योग्य अरहन्त भगवान्में और सद्-गुरुमें पूजा आदिके साथ जो विनय आदि व्यक्त किये जाते हैं, वह भक्ति कही जाती है ।।७४०॥ रोगसे पीड़ित शरीरवाले साधु वर्गमें जो औषधि आदिके द्वारा सेवा टहल रूप वैयावृत्ति की जाती है, वह वात्सल्य कहा जाता है।॥७४१।। दुःखोंके सागर ऐसे इस संसार में परिभ्रमण करनेवाले प्राणियोंपर दयालु पुरुषका दयासे चित्तका आर्द्र हो जाना इसे कारुण्य भाव कहा गया है |७४२॥ जिसके हृदयमें इन आठ गुणोंसे युक्त सम्यक्त्व निवास करता है, उसके घरमें निर्मल लक्ष्मी निरन्तर निवास करती है ।।७४३॥ तथा सम्यक्त्वको मलिन करनेवाले दोष छोड़ना चाहिए। वे दोष कौनसे हैं ? ऐसा पूछे जानेपर आचार्य कहते हैं-तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंका आदि आठ ये सम्यक्त्वके पच्चीस दोष हैं ॥७४४॥ जगत्में भय उत्पन्न करनेवाले, राग-द्वेषसे आकुल-व्याकुल, मलसमूहसे मलिन, जीवधात करनेके लिए उद्यत और कामदेवके वाणोंसे पीड़ित देवताओंकी जो सेवा उपासना करना सो उसे अपरिमित बुद्धिवाले ज्ञानियोंने देवमूढ़ता कही है ।।७४५।। सूर्यको अर्घ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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