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________________ श्रावकाचार-सारोद्धार ३२३ श्रुत्वेति मन्त्रिणो वक्त्रात्पार्थिवः प्रतिपद्यताम् । किं वानाचारमत्युच्चैः लोभयुक्ता न कुर्वते ॥७०८ दिने रम्ये शुभे लग्ने वन्दकेन निवेदिताम् । अथ तां प्रस्फुरदूपां परिणिन्ये महीपतिः ॥७०९ तथागतोदितस्फारधर्मकर्मविशारदा । बुद्धदासोति सा नाम्ना भुवि विख्यातिमुपेयुषी ॥७१० या पुराऽऽसोज्जगन्निन्द्या सापि राजीशिरोमणिः । अहो लोकोत्तरं धर्ममाहात्म्यं भुवनत्रये ॥७११ अथासौ फाल्गुने मासि भूपालप्रथमप्रिया। नन्दीश्वरलसत्पर्वपूजां कर्तुं समुद्यता ॥७१२ उल्लसत्किङ्किणीक्वाणबधिरीकृतदिग्मुखम् । मणिजालप्रभाध्वस्तध्वान्तं स्वर्णविनिमितम् ॥७१३ सनाथं जिनबिम्बेन विमानप्रतिमं रथम् । उब्विलायाः समालोक्य बुद्धदासो विसिष्मिये ॥७१४ मम बुद्धरथः पूर्व नो चेद् भ्रमति पत्तने । तदा मन्मातुलस्यास्य दु:खं भवति निश्चितम् ॥७१५ विचिन्त्येति महीपालमचे स्नेहाद्विचक्षणा। मम बुद्धरथः पूर्व नाथ भ्रमतु पत्तने ॥७१६ एवमस्त्विति सा नाथवाक्यतो मुमुदे तमाम् । उठिवला च मषोलिप्तमुखी तत्क्षणतोऽभवत् ॥७१७ जिनेन्द्रमतमाहात्म्यं विनाशं किमु यास्यति । कि वा मेऽद्य समायाता क्षतिः सद्धर्मकर्मणः ॥७१८ इतीयं प्रस्फुरच्चिन्ताचयचक्रेण चालिता। क्षत्रियाख्यां गुहामाप राज्ञो दोनमुखाम्बुजा ॥७१९ सोमदत्तं गुणोदात्तं नमस्कृत्य गुरुं पुरा । ततो वज्रकुमारं सा ननाम मुनिमादरात ॥७२० आपद-व्याप्तजगत्तापनिर्वापणघनाघन । धनध्वान्तहर स्वामिस्त्वमेव शरणं मम ॥७२१ वन्दक साधु बोला-यदि राजा आदरके साथ मेरे धर्मको ग्रहण करे तो मैं पुत्री देता हूँ॥७०७॥ मंत्रीके मुखसे यह बात सुनकर राजाने उसे स्वीकार कर लिया। लोभसे युक्त पुरुष किस बड़े भारी अनाचारको नहीं करते हैं ? सभी कुछ करते हैं ॥७०८॥ ___अथानन्तर उत्तम सुरम्य दिनमें शुभ लग्नके समय वन्दकके द्वारा प्रदान की गई रूप सौन्दर्यशालिनी उस वणिकसुताको राजाने वरण लिया ॥७०९|| बुद्ध-प्रतिपादित प्रस्फुरित धर्मकर्ममें विशारद वह रानी संसारमें बुद्धदासीके नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई ॥७१०। जो पहिले इसी जन्ममें लोक-निन्दित थी, वह आज रानियोंमें शिरोमणि हो गई। अहो तीन भुवनमें धर्मका माहात्म्य लोकोत्तर है ॥७११॥ ___ इसके पश्चात् राजाकी पहिलि रानी उविला फाल्गुन मासमें नन्दीश्वर पर्वकी उत्तम पूजा करने के लिए उद्यत हुई ॥७१२॥ उसने जिन यात्राके लिए जो रथ तैयार कराया, वह चमकती हई घण्टियोंके शब्दसे दिग्मुखोंको बधिर कर रहा था, मणियोंके समूहकी प्रभामें अन्धकारका विध्वंस करने वाला था, सुवर्णसे बना था और देव विमानोंके समान सुन्दर और जिनेन्द्रदेवके बिम्बसे युक्त था। उविलाके ऐसे अनुपम रथको देखकर बुद्धदासी विस्मयको प्राप्त हुई ॥७१३७१४॥ यदि मेरे बुद्धदेवका रथ नगरमें परिभ्रमण नहीं करेगा, तो इससे मेरे मामाको निश्चित रूपसे दुःख होगा। ऐसा विचार कर उस विलक्षण बुद्धिवाली बुद्धदासीने राजासे स्नेहके साथ कहा-हे नाथ, मेरा बुद्धरथ नगरमें पहिले परिभ्रमण करे ॥७१५-७१६॥ राजाने कहा-'ऐसा ही होगा' । पतिके ऐसे वचन सुनकर वह अत्यन्त प्रमोदको प्राप्त हुई। किन्तु उर्विला यह सुनकर तत्काल स्याहीसे पुते हुए मुख जैसी हो गई ॥७१७॥ वह सोचने लगी-क्या अब जिनेन्द्र देवके मतका विनाश हो गया ? ॥७१८।। इस प्रकार बढ़ती हुई चिन्तासमूहके चक्रसे चलायमान होती हुई दोन मुखकमल वाली वह उविला रानी क्षत्रिय नाम वाली गुफाको प्राप्त हुई ॥७१९।। वहाँपर विराजमान उदात्त गण वाले सोमदत्त गरुको आदरसे पहिले नमस्कार करके पुनः उसने वनकुमारमुनिको नमस्कार किया ॥७२०॥ उसने स्तुति करते हुए कहा-हे आपद्-व्याप्त जगत्के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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