SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ श्रावकाचार-संग्रह भाविनी नृपतेः पत्नी नान्यथा मुनि-भाषितम् । तदहं पालयाम्येना बौद्धधर्माभिवृद्धये ॥६९४ ततस्तन्मातरं तां च नीत्वा स्ववसति व्रती । पोषयामास मिष्टान्नपानैः कालोचितैः स्वयम् ॥६९५ अतुच्छस्तस्य वात्सल्यैः सुखाढया सा वणिक्सुता। त्यक्त्वा बाल्यमथ प्राप यौवनं जनमोहनम् ॥६९६ मन्ये तारुण्यमादाय विधिरेनां विनिमिजे । जराकंप्रस्य वैचित्र्यमन्यथा कथमीदृशम् ॥६९७ निर्गतोऽथ वसन्ततौ क्रीडार्थ सपरिच्छदः । दोलाकेलिरतामेतामद्राक्षीद धरणीधवः ॥६९८ किमियं देवता काचित् कि वा पातालकामिनी । कि वा तिलोत्तमा शोभा मत्पुरे द्रष्टुमागता ॥६९९ मत्तमातङ्गगामिन्या कामिन्या सममेतया। वनवासो वरं राज्यजितं नैतया विना ॥७०० कन्दर्पः प्रस्फुरदो बाणैः प्राणहरैरमुम् । विव्याधावसरं प्राप्य विमुह्यति न धीरधीः ॥७०१ इत्थं काममहाव्यालविषानलकरालितः। गत्वा वेश्मनि पल्यडू निपत्य स्थितवान् नृपः॥७०२ जला चन्दनं चन्द्रः कदलीनां दलानि च । नाभवन् विरहार्तस्य नरेन्द्रस्य सुखाप्तये ॥७०३ ततः क्षोणिभुजो वृत्तं सम्यग्विज्ञाय मन्त्रिणः । अभ्येत्य सदनं प्रोचुः वन्दकं परमादरात् ॥७०४ देव धन्यस्त्वमेवाद्य धुर्यस्त्वं पुण्यशालिनाम्। भग्नीपुत्र्या वरो भावी यस्य पूतिगन्धो मुखो नृपः॥७०५ भागिनेयीमिमां दत्वा राज्ञे सौन्दर्यशालिनीम् । पतिर्भव समस्तानामासां लोकोत्तरश्रियाम् ॥७०६ अभ्यधाच्च ततः सोऽपि मामकं धर्ममादरात् । गृह्णाति चेद घराधीशस्तवाऽहं प्रददे सुताम् ॥७०७ नामके बुद्धधर्मी साधुने उन मुनिके उक्त कथनको सुन लिया ॥६९३|| 'यह राजाकी रानी होगी' यह मुनिका कथन अन्यथा नहीं हो सकता । अतः बौद्ध धर्मकी अभिवृद्धिके लिए मैं इसका पालन करूंगा ॥६९४॥ तब वह बौद्धवती साधु उसकी माताको और उस लड़कीको अपनी वसतिकापर ले जाकर समयके अनुकूल उचित मिष्ट अन्न-पानसे उसका पालन-पोषण करने लगा ॥६९५।। उस बौद्ध साधुके भारी वात्सल्यसे सुख पूर्वक पालन की जाती हुई वह वणिक्-पुत्री कुछ दिनोंमें बालभावको छोड़कर जन-मनमोहन यौवन अवस्थाको प्राप्त हुई ॥६९६।। विधिने तारुण्य अवस्थाको लेकर ही इस बालाको बनाया है। ऐसा मैं मानता है। अन्यथा जरासे कम्पित उस विधिकी ऐसी विचित्रता कैसे संभव थी॥६९७|| अथानन्तर वसन्त ऋतुमें वन-क्रीड़ाके लिए राजा अपने दल-बलके साथ निकला और मार्गमें दोला केलिमें निरत इस युवती बालाको उसने देखा ॥६९८॥ देखते ही वह सोचने लगाक्या यह कोई देवता है, या पातालवासिनी कामिनी है, अथवा तिलोत्तमा है, जो मेरे इस नगरकी शोभा देखनेको आई है ।।६९९।। मत्त गजगामिनी इस कामिनीके साथ वनमें निवास करना अच्छा है, किन्तु इसके बिना यह विशाल राज्य सुख अच्छा नहीं है ॥७००॥ स्फुरायमान है दर्प जिसका ऐसे कामदेवने प्राणोंको हरण करने वाले अपने बाणोंसे इस राजाको वेधित कर दिया। बुद्धिमान् धीर वीर पुरुष अवसर पाकर विमोहित नहीं होता है; अर्थात् अपना कार्य करनेसे नहीं चूकता है ॥७०१।। इस प्रकार कामरूपी महानागके विषरूप अग्निसे प्रज्वलित वह राज-भवन जाकर पलंगपर गिरकर लेट गया ॥७०२॥ जलसे घिसा हुआ चन्दन, चन्द्रमा और केलेके पत्र भी उस विरह-पीड़ित राजाको सुख-प्राप्तिके लिए समर्थ नहीं हुए ॥७०३।। तब मंत्री गण राजाके इस वृत्तान्तको सम्यक् प्रकारसे जानकर वन्दकके निवासपर जाकर परम आदरसे इस प्रकार बोले-हे देव, आप धन्य हैं, आज आप पुण्यशाली जनोंके अग्रणी हैं कि जिसकी बहिनकी पुत्रीका पूतिगन्ध नामक राजा वर होने वाला है ॥७०४-७०५।। इसलिए इस सौन्दर्यशालिनी अपनी भानजीको राजाके लिए देकर इन समस्त लोकोत्तर लक्ष्मियोंके स्वामी होइए ॥७०६॥ तब वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy