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________________ ३२१ - श्रावकाचार-सारोडार यथा यथा तपोवह्निरुल्ललास महात्मनः । तया तथा कुकर्माणि नाशमीयुभंयादिव ॥६८० मथुरायामथैतस्यां नगर्यामार्यवणितः । पूतिगन्धाभिधो बन्धुजीवातुर्धरणीधवः ॥६८१ शुद्धसम्यक्त्वसंयुक्ता श्रीजिनशासने । सतीमतल्लिकोबिल्ला प्रियात्ययं महीपतेः ॥६८२ राज्ञी नन्दीश्वरस्याथ दिनेषु प्रतिवासरम् । जिनेन्द्ररथयात्राभिः पुष्णाति स्म मनोरयम् ॥६८३ आसीत्तस्यां पुरि स्फारप्रभो भरिसभोचितः। पतिः समुद्रदत्तायाः श्रेष्ठी सागरदत्तभाक् ॥६८४ यदा पुत्री दरिद्राख्या दरिद्रोनिद्वमानसा । समुत्पन्ना तदैवासौ परासुर्वाणिजोऽभवत् ॥६८५ निःसृताः सदनाच्छोभाः सह लक्षम्या च बान्धवाः । ययुर्वेशान्तरं पुण्यक्षयात्किं वा न जायते ॥६८६ या प्रेष्ठिभामिनी लक्ष्म्या तणीकृतजगत्त्रया स्त्रोदरापूरणं चक्र साप्यन्यगृहकर्मभिः ॥६८७ परोच्छिष्टानि सिक्थानि भक्ष्यन्ती मलाविला। विवस्त्रा धरणीरेणुधूसरीभूतमूर्धजा ॥६८८ उल्लसन्मक्षिकालक्षभक्ष्यमाणवणाकुला। दरिद्रात्यन्तदुःखानि प्रपेदे पापपाकतः ॥६८९ अन्यदा नन्दनो ज्येष्ठः कनीयानभिनन्दनः । मुनी मध्याह्नवेलायामाहारार्थमुपागतौ ॥६९० तां निरीक्ष्य लघुभिक्षुरूचे किश्चिच्छुचाचितः । दैवात्कमियं बाला दुःखान्यनुभवत्यरम् ॥६९१ अभाषिष्ट ततो ज्येष्ठो मुनिर्बोधिविलोचनः । भाविनीयं नृपस्यास्य वल्लभात्यन्तवल्लभा ॥६९२ तस्मिन्नेव क्षणे भिक्षानिमित्तं पर्यटन्नयम् । बन्दको बुद्धधर्माख्यः शुश्राव श्रमणोदितम् ॥६९३ गुरुके पादमूलमें तपश्चरण ग्रहण कर लिया ॥६७९।। जैसे-जैसे उस महात्माके तपरूपी अग्नि उल्लसित हुई, वैसे-वैसे ही खोटे कर्म मानों भयसे ही नाशको प्राप्त हो गये ॥६८०॥ __ अथानन्तर इसी मथुरा नगरीमें पूतिगग्ध नामक बन्धुजनोंको जीवन प्रदान करने वाला राजा था ।।६८१॥ उस राजाकी अत्यन्त प्यारी, शुद्ध सम्यक्त्वसे संयुक्त श्री जिनशासनकी भक्त और सतियोंमें शिरोमणि उर्मिला नामकी रानी थी ॥६८२॥ वह रानी नन्दीश्वर पर्वके आठों ही दिनोंमें प्रतिदिन जिनेन्द्र देवकी रथ यात्रा निकालकर अपने मनोरथको पुष्ट करती ॥६८३॥ उसी नगरीमें भारी प्रभावशाली, अनेक सभाओंमें उचित स्थानको प्राप्त समुद्रदत्ता सेठानीका पति सागरदत्त नामका एक सेठ रहता था ॥६८४॥ उसके यहाँ जब दरिद्रा नामकी दरिद्रतासे युक्त चित्तवाली पुत्री उत्पन्न हुई, तभी वह सेठ मरणको प्राप्त हो गया ॥६८५।। उसके मरते ही लक्ष्मीके साथ सारी शोभा घरसे निकल गई और बन्धु-बान्धव और जन भी बाहर चले गये । ग्रन्थकार कहते हैं कि पुण्य क्षय हो जानेपर क्या नहीं हो जाता है ? सभी कुछ हो जाता है ॥६८६।। जो सेठकी स्त्री अपनी लक्ष्मीसे तीन जगत्को तृणके समान तुच्छ समझती थी, वह भी दूसरोंके घरमें काम-काज करके अपना उदर-यूरण करने लगी ॥६८७॥ उस सेठकी जो दरिद्रा पुत्री उत्पन्न हुई थी वह दूसरोंके जूठे अन्नको खाती हुई मलसे व्याप्त, वस्त्र रहित, भूमिकी धूलिसे धूसरित केशवाली होकर जिस किसी प्रकार दिन बिताने लगी। उसके शरीरमें फोड़े-फुसियोंके घावोंपर लाखों मक्खियाँ भिनभिनाती हुई उसे काटती और खाती रहती थीं, जिससे वह सदा भारी आकुलव्याकुल रहती थी। इस प्रकार पूर्व पापके परिपाकसे वह अत्यन्त दुःखोंको भोगने लगी ॥६८८-६८९॥ किसी एक दिन नन्दन नामके ज्येष्ठ और अभिनन्दन नामके कनिष्ठ दो मुनि मध्याह्नके समय आहारके लिए नगरमें आये ॥६९०॥ उस दरिद्राको उक्त अवस्थामें अति दुःखी देखकर कुछ शोक-युक्त होते हुए लघु मुनिने बड़े मुनिसे कहा-देवसे प्रेरित यह कन्या किस प्रकारसे अत्यन्त दुःखोंको भोग रही है ॥६९१॥ तब ज्ञानलोचन वाले ज्येष्ठ मुनिने कहा-यह यहींके राजाकी अत्यन्त प्यारी रानी होगी ॥६९२।। उसी समय भिक्षाके लिए नगरमें परिभ्रमण करते हुए धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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