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________________ श्रावकाचार-संग्रह प्रेष्मो रविरिव प्राप सप्रतापं यथा यथा । मम्ले तथा तथात्यन्तमरातिकुमुदाकरः ॥६६६ अवैतस्मिन्महोभर्तुर्मानं दृष्ट्वा निजे सुते । अपमानं जयश्रीः सा चुकोप नृपतिप्रिया ॥६६७ जातोऽन्येन दुरात्माऽयमन्यं सन्तापयत्यलम् । इत्याख्यानं मुखान्मातुरोषोत्स विचक्षणः ॥६६८ ततो दुःखोपतापोष्मा वान्तस्वान्तो महीपतिम् । गत्वाऽभणीदहं तात सुतः कस्य प्रकाशय ॥६६९ पुत्र पुत्र किमत्राय मतिभ्रंशस्तवाभवत् । यदेवं भाषसेऽस्माकं कर्णशलकरं वचः ॥६७० कथयिष्यसि चेत्सत्यं तात वृत्तान्तमादितः । भविष्यति तदा नूनं प्रवृत्तिर्मम भोजने ॥६७१ दुराग्रहप्रस्तं कुमारं मारसन्निभम् । विज्ञाय न्यायविद्भपस्तत्स्वरूपं न्यरूपयत् ॥६७२ अत्वा वज्रकुमारोऽयं वाष्पाविलविलोचनः । किञ्चिदुद्विग्नचित्तोऽभूद्देवं निन्दन्मुहुर्मुहुः ॥६७३ अतो विमानमारुह्य बन्धुपित्रादिभिः समम् । गुरुं नन्तुमना वेगात्प्रतस्थे मथुरां पुरोम् ॥६७४ तत्रत्यैरपि सङ्गत्य बान्धवैः स्नेहबन्धुरैः। सोमदत्तं गुरुं गत्वा ननामादरतः सुतः ॥६७५ नतिं कृत्वा निविष्टेषु बान्धवेषु यथायथम् । राजा दिवाकरः पूर्व तां तामचकथत्कथाम् ॥६७६ धत्वा स्पष्टमभाषिष्ट कूमारो मारसुन्दरः। आज्ञापय द्रतं तात तपोऽनुचरणाय माम॥६७७ प्रत्यूचेऽथ महीपालो मैवं वोचः कलानिधे । त्वत्सहायात्तपोऽस्माकं कत्तु युक्तं न ते पुनः ॥६७८ समुल्लङ्घ्य पितुर्वाक्यं संसारभयकातरः । पादमूले गुरोः स्वस्य तपश्चरणमाददे ॥६७९ ग्रीष्मकालीन सूर्यके समान जैसे जैसे वह प्रतापको प्राप्त होता गया, वैसे वैसे ही शत्रुरूपी कुमुदोंका वन अत्यन्त म्लान होता गया ॥६६६॥ इसके पश्चात् राजाका इस वज्रकुमारपर बहुमान और अपने सगे पुत्रपर अपमान देखकर दिवाकर राजाकी रानी जयश्री (जिसने कि इसे लाकर पाला था) क्रुद्ध रहने लगी ॥६६७। एक दिन वह ईर्ष्यासे कह रही थी कि 'अन्यके द्वारा उत्पन्न हुआ यह दुष्टात्मा दूसरेको अति सन्ताप पहुंचा रहा है । इस प्रकार माताके मुखसे उस बुद्धिमान्ने यह कथन सुन लिया ॥६६८॥ तब दुःखके सन्तापसे अति सन्तप्त चित्त होकर वजकुमारने पिता दिवाकर राजाके पास जाकर कहा हे तात, में किसका पुत्र हूँ, सत्य बात बताइये ॥६६९।। तब राजाने कहा-हे पुत्र, हे वत्स, आज तुझे यह क्या बुद्धि-भ्रम हो गया है, जो हमारे कानोंको शूलके समान चुभने वाले ऐसे वचन बोलते हो ॥६७०।। तब वज्रकुमार बोला-हे तात, यदि प्रारम्भसे लेकर सारा वृत्तान्त आप सत्य कहेंगे तो मेरी भोजनमें प्रवृत्ति होगी। (अन्यथा भोजन नहीं करूंगा) ॥६७१॥ कुमारको इस प्रकारके दुराग्रहरूप ग्रहसे ग्रस्त और दुःख भारसे पीड़ित जानकर न्याय नीतिके जानकार राजाने उससे सारा पूर्व वृत्तान्त कह दिया ॥६७२।। सुनकर यह वजकुमार अश्रु व्याप्त नेत्र वाला हो कुछ उद्विग्न चित्त हो गया और बार-बार भाग्यको निन्दा करने लगा ॥६७३॥ __ . अथानन्तर वह विमानमें बैठकर पिता और बन्धु आदिके साथ अपने पिता और वर्तमानमें गुरुको नमस्कार करनेकी मनसासे मथुरा पुरोको वेगसे प्रस्थान कर दिया ॥६७४॥ वहाँके स्नेही बन्धु-बान्धवोंके साथ जाकर वज्रकुमार पुत्रने अपने पिता सोमदत्त गुरुको नमस्कार किया ॥६७५।। नमस्कार करके यथास्थान सर्व बन्धुबान्धवोंके बैठ जानेपर राजा दिवाकरने पहिले वह सारी कथा कही ॥६७६।। सारी कथा सुनकर कामदेवके समान सुन्दर वज्रकुमारने कहा-हे तात, तपश्चरण करनेके लिए मुझे शीघ्र आज्ञा दीजिये ॥६७७।। तब दिवाकर राजाने उत्तरमें कहा-हे कलानिधान, ऐसा मत कहो। तेरी सहायतासे हमारा तपश्चरण करना योग्य है, किन्तु तेरा नहीं ॥६७८॥ पिताके इन वचनोंका उल्लंघन करके संसारके भयसे डरे हुए उस वज्रकुमारने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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