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________________ श्रावकाचार-सारोबार कनकद्रङ्गभूमोशो नाम्ना विमलवाहनः । ततः पाठितवान् विद्या शिशुकृत्रिममातुलः ॥६५३ अध्यगोष्ट तथा बालः स विद्यां निरवद्यधीः । यथा विस्मयमापन्नाः सर्वे ते खचराधिपाः ॥६५४ ह्रीमन्तं पर्वतं वज्रकुमारः सोऽन्यदा गतः । साधयन्ती महाविद्यामेकां नारों निरक्षत ॥६५५ वातकम्पितकर्कन्धुकण्टकाक्रान्तलोचना । सा स्वान्तं न स्थिरीकर्तुं शशाक निजसिद्धये ॥६५६ इयतापि प्रयत्नेन यद्विद्याऽस्या न सिद्धचति । तदत्र कारणं किञ्चिदित्युक्त्वा तत्पुरोऽगमत् ॥६५७ ज्ञात्वा वज्रकुमारोऽसौ विचक्षणशिरोमणिः । नेत्राद्विज्ञानतस्तीक्ष्णं कण्टकं तमपाच्छिदत् ॥६५८ सिद्धविद्याप्रमोदाढया ततः खेचरनन्दिनी । कुमाराभ्यर्णमागत्य जगाद मधुरां गिरम् ॥६५९ राज्ञो गारुडवेगस्य वैरिवारनिवारिणः । अङ्गवत्या लसत्कुक्षिशुक्तिमुक्ता लसत्प्रभा॥६६० अहं पवनवेगाख्या विद्यामन्त्रविशारदा । अभवं त्वत्प्रसादेन सिद्धविद्या नरोत्तम ॥६६१ अतस्त्वत्तः परं मत्य नाथं नो कत्त मुत्सहे । राजहंसं परित्याज्य हंसी किं वा वकं श्रयेत् ॥६६२ ततो गरुडवेगेन तत्पित्रा तां निवेदिताम् । महोत्सवशतैरेषः कुमारः परिणीतवान् ॥६६३ अथासौ निजपत्नोतो लब्ध्वा विद्यां गरीयसीम् । ससैन्यः सहितः पित्रा गतवानमरावतीम् ॥६६४ पुरन्द्रं कृतारातिदरं जित्वा रणाङ्गणे । पितरं स्थापयामास सुतो राज्ये महीयसि ॥६६५ क्रीड़ा करते हुए पांच वर्षों को पांच दिनकी लीलाके समान बिता दिया ॥६५२॥ तत्पश्चात् कनकपुरका स्वामी राजा विमलवाहन जो कि दिवाकर विद्याधरका साला और वज्रकुमारका कृत्रिम मामा था, उसने इस वज्रकुमार बालकको विद्या पढायी। निर्दोष-बुद्धिवाले उस बालकने विद्या इस प्रकार शीघ्रतासे पढ़ ली कि जिससे सभी विद्याधरोंके स्वामी विस्मयको प्राप्त हुए।।६५३-६५४|| किसी एक दिन वज्रकुमार ह्रीमन्त पर्वतपर परिभ्रमणके लिए गया । वहाँपर उसने महाविद्याको सिद्ध करती हुई एक स्त्रीको देखा ॥ ५५॥ वायुके वेगसे कंपती हुई बेरोके काँटोंसे व्याप्त लोचन वाली वह अपना मन अपनो विद्या सिद्ध करनेके लिए स्थिर कर सकने में समर्थ नहीं हो पा रही थी ॥६५६॥ 'इतने प्रयत्नसे भी इसके विद्या सिद्ध नहीं हो रही है. तो इसमें कछ कारण होना चाहिए' ऐसा मनमें विचार कर वह वज्रकुमार उसके आगे गया ।।६५७॥ बुद्धिमानोंमें शिरोमणि उस वज्रकुमारने उसकी आँखोंमें लगे हुए कांटेको देख लिया और बड़ी कुशलतासे उस तीक्ष्ण काँटे को उसकी आँखसे निकाल दिया ॥६५८ (काँटा निकल जानेसे उसका चंचल मन शान्त और एकाग्र हो गया, अतः उसे विद्या तत्काल सिद्ध हो गई।) तब विद्याकी सिद्धिसे प्रमोदको प्राप्त उस विद्याधरकी पत्रीने कमारके समीप आकर इस प्रकारसे मधर वाणीमें कहा-वैरियोंके वारोंके निवारण करने वाले गरुडवेग राजाकी अंगवती रानीकी शोभासम्पन्न कुक्षिरूपी शक्तिसे उत्पन्न प्रभायुक्त मुक्ताके समान मैं पवनवेगा नामकी पुत्री हूँ और मंत्र विद्यामें विशारद हूँ। हे नरोत्तम, आपके प्रसादसे मैं सिद्धविद्या वाली हूँ ॥६५९-६६१।। अतएव आपके सिवाय मैं अन्य मनुष्यको अपना नाथ (पति) बनानेके लिए उत्साहित नहीं हूँ। क्या राजहंसी राजहंसको छोड़कर वकका आश्रय ले सकती है ? कभी नहीं ॥६६२॥ तब उसके पिता गरुड़वेगके द्वारा प्रदान की गई उस पवनवेगाको भारी महोत्सवके साथ इस वजकुमारने विवाह लिया ॥६६३॥ अथानन्तर वह वज्रकुमार अपनी पत्नीसे गौरवमयी विद्याको पाकरके सैन्य-सहित पिताके साथ अमरावती नगरी गया ॥६६४॥ वहाँपर शत्रुओंको भय पैदा करने वाले पुरन्दरको समराङ्गणमें जीतकर इस वजकुमार पुत्रने बड़े भारी राज्यपर अपने पिताको स्थापित किया ॥६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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