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________________ ३१८ भावकाचार-संग्रह सेवकेभ्यः समाकण्यं भर्तृवृत्तान्तमादितः । शिवभूतिसुता गत्वा बान्धवेभ्यो न्यवेदयत् ॥६३९ ततस्तैः सा समं नाभिपर्वतेऽत्यन्तदुर्गमे । गत्वा भरिमालोक्य जज्वाल कोधवह्निना ॥६४० ऊचे च पाप ते दीक्षा यद्यभोष्टार्थसिद्धये । तन्मां कथं विवाह्य मामवस्थां नीतवानसि ॥६४१ त्वया जातोऽस्ति यः पुत्रो विधेह्य तस्य पालनम् । इत्युक्त्वा तत्पदाग्रे तं घृत्वा सा स्वपदं ययौ ॥६४२ अथामरावतीनाथो विजितारातिसन्ततिः। आसोदिवाकरो नाम्ना विद्याधरमहीपतिः ॥६४३ पुरन्दरेण तद्-भ्रात्रा लघुना गर्वशालिना। अन्यदा युधि निजिस्य राज्याज्येष्ठो निराकृतः ॥६४४ सोऽपि राज्याच्च्युतो भार्यायुतो दुःखितमानसः । नभोयाने समारुह्य तीर्थयात्रामचीकरत् ॥६४५ पर्यटन्नन्यदा व्योम्नि गतवान्नाभिपर्वतम् । दृष्ट्वा तत्र मुनि ध्यानस्थितं नौति स्म खेचरः ॥६४६ तत्पुरः प्रस्फुरद्वक्त्रं पङ्कजायतलोचनम् । रसालं बालमालोक्य खगोऽत्यर्थं विसिष्मिये ॥६४७ जगावाहावसंयुक्तः कान्तामिति खगेश्वरः । प्राप्तं पुण्यपरीपाकाद् गृहाणेमं तनूदरि ॥६४८ ततः प्रियतमादेशात् कराभ्यां सा तमग्रहोत् । ननुत्तमकुलोत्पन्नाः स्वभर्तृवशगाः स्त्रियः ॥६४९ बज्ञादिचिह्नसंयुक्तौ करावालोक्य खेचरः । तस्य वज्रकुमारोऽयमिति नाम मुदाऽकरोत् ॥६५० भूयाः खेचरभूमीन्द्रशिरोरत्नं सुत द्रुतम् । इत्युक्वा तं गृहीत्वाऽऽशु दम्पती स्वपदं गतौ ॥६५१ बालः कृत्रिमबन्धूनां पर्यकपरिखेलनैः । पञ्चातिक्रान्तवान्नूनं वत्सरान् दिनलीलया ॥६५२ यज्ञदत्ताने कान्तिसे शोभित पुत्रको सुख पूर्वक उत्पन्न किया ॥६३८॥ जब शिवभूतिकी पुत्री यज्ञदत्ताने सेवकोंसे अपने भर्तारका वृत्तान्त आदिसे सुना तो उसने अपने बन्धुजनोंसे जाकर निवेदन किया ॥६३९।। तत्पश्चात् उन बन्धुजनोंके साथ वह अत्यन्त दुर्गम नाभिपर्वतके ऊपर जाकर और भर्तारको मनिवेषमें देखकर क्रोधाग्निसे जल उठी ।।६४०॥ वह बोली-हे पापिन्, यदि तुझे अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिए दीक्षा अभीष्ट थी, तो मुझे विवाह कर इस अवस्थाको क्यों प्राप्त कराया ॥६४१।। तेरे द्वारा जो यह पुत्र उत्पन्न किया गया है, इसका अब पालन कर। ऐसा कह कर और उनके पैरोंके आगे उस बालकको रखकर वह अपने घर चली गई ॥६४२॥ अथानन्तर शत्रुओंकी परम्पराको जीतनेवाला अमरावती नगरीका स्वामी दिवाकर नामका विद्याधरोंका राजा था ॥६४३।। किसी समय गर्वशाली पुरन्दर नामक उसके लघु भ्राताने युद्ध में उसे जीतकर राज्यसे ज्येष्ठ भ्राताको निकाल दिया ॥६४४॥ राज्यसे च्युत हुआ वह दिवाकर विद्याघर दुःखित चित्त हो अपनी स्त्रीके साथ नभोयान (विमान ) में बैठकर तीर्थयात्रा करने लगा ॥६४५॥ किसी एक दिन आकाशमें विहार करते हुए वह नाभि पर्वतपर गया और वहाँपर ध्यानस्थित मुनिराजको देखकर उस विद्याधरने उन्हें नमस्कार किया ॥६४६।। मुनिके आगे प्रसन्न मुख वाले और कमलके सदृश विशाल नेत्रोंके धारक सुन्दर बालकको देखकर वह विद्याधर अत्यन्त विस्मयको प्राप्त हुआ ॥६४७॥ तब आनन्दसे युक्त होकर उस विद्याधरने अपनी प्रियासे कहा-हे कृशोदरि, पुण्यके परिपाकसे प्राप्त इस पुत्रको ग्रहण कर ॥६४८॥ तब अपने प्रियतमके आदेशसे उसने दोनों हाथोंसे उसे उठा लिया। निश्चय ही उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई स्त्रियाँ अपने पतिकी इच्छानुवर्तिनी होती हैं ।।६४९।। वन आदि चिन्होंसे युक्त हाथोंको देखकर उस विद्याधरने अति हर्ष पूर्वक उसका 'वज्रकुमार' यह नाम रख दिया ॥६५०॥ पुनः हे पुत्र, तू शीघ्र ही विद्याघरों, भूमिगोचरी राजाओंका शिरोमणि रत्न हो, ऐसा कहकर और उसे लेकर वे दम्पति अपने स्थानको चले गये ॥६५१।। उनके घरपर बालक वज्रकुमारने कुत्रिम बन्धुओंको गोदमें खेलते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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