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________________ श्रावकाचार सारोबार ३१७ यज्ञदत्ताभिसक्तस्य सोमदत्तस्य मन्त्रिणः । ततस्तस्य पुमर्येषु कामं कामः प्रियोऽभवत् ॥६२५ वर्षाकालेऽन्यदा यज्ञदत्ताया गर्भसम्भवे । सहकारफले पक्वे समासीहोहदोदयः ॥६२६ तदान्वेषयता तेन सोमवत्तेन सर्वतः । नक्काप्याम्रफलं लब्धं निर्भाग्येनेव काञ्चनम् ॥६२७ अन्यदा प्रस्फुरच्चिन्ता चान्तश्चेताः क्वचिद्वने । पचेलिमफलाकोणं सहकारं स दृष्टवान् ॥६२८ अधस्तात्तस्य योगस्थं सुमित्राख्यं मुनीश्वरम् । दृष्टवैतस्य प्रभावोऽयमित्यज्ञासीद द्विजोत्तमः ॥६२९ ततस्तानि समादाय फलानि सफलक्रियः । स्वसेवककरे मन्त्री प्रेषयामास सत्वरम् ॥६३० प्रेरितः काललब्ध्याऽथ सोमदत्तो द्विजोत्तमः । भक्तिप्रह्वतया नत्वा व्याजहार मुनीश्वरम् ॥६३१ अस्मिन्नसारे संसारे सारं किं मुनिसत्तम । मुनिरूचे दयाचिह्न धर्म श्रीजिनभाषितम् ॥६३२ स कथं क्रियते नाथ धर्मः कर्मनिवर्हणः। महावतादिभेदेन मुनीन्द्रोऽप्युदचीचरत् ॥६३३ ततो वैराग्यमापन्नो भवभ्रमणशङ्कितम् । सुमित्रयतिनोऽभ्यणे जैनों दीक्षामशिधियत् ॥६३४ सिद्धान्तागाधपाथोधि निपीय गुरुसेवया । अन्यवा प्रस्फुरच्छृङ्गं प्रपेदे नाभिपर्वतम् ॥६३५ अनादिवासनालोनकर्मसन्तानशान्तये । तत्रातापनयोगेन स्थितवान्नौतनो मुनिः ॥६३६ तस्यातपवशाद्देहे निःसृताः स्वेदबिन्दवः । निर्यातकर्मणां मन्ये रुदतामविप्रषः ॥६३७ अथ रम्ये दिने स्वस्वस्थानस्थेषु ग्रहेषु च । यज्ञवत्ता लसत्कान्ति तनयं सुषुवे सुखम् ॥६३८ मामा आदिको सर्व प्रकारसे तृणके समान गिनने लगा ॥६२३॥ तब पुण्यके उदयसे उसने अपने शिवमूर्ति मामाकी लड़की यज्ञदत्ताको सौम्य मुहूर्त में विवाहा ॥६२४॥ उस यज्ञदत्तामें आसक्त सोमदत्त मंत्रीको सभी पुरुषार्थों में काम पुरुषार्थ अधिक प्रिय हुआ ॥६२५।। यज्ञदताके गर्भवती हो जानेपर किसी समय वर्षाकालमें उसे पक्व आम्रफल खानेका दोहला हुआ ॥६२६।। तब उस सोमदत्तने सर्वत्र आम्रफलका अन्वेषण किया, परन्तु कहींपर भी आम्रफल नहीं मिला । जैसे कि अभागी मनुष्यको स्वर्ण नहीं मिलता है ॥६२७॥ जिसके मनमें चिन्ता बढ़ रही है, ऐसे उस सोमदत्तने किसी समय किसी वनमें पके हुए फलोंसे व्याप्त आमके वृक्षको देखा ॥६२८॥ उसके नीचे ध्यानस्थ सुमित्र नामके मुनीश्वरको देखकर उस द्विजोत्तमने जान लिया कि यह इनका प्रभाव है ॥६२९॥ तब सफल हो गया है प्रयत्न जिसका ऐसे उस मंत्रीने उस वृक्षके बहुतसे आम्रफल लेकर अपने सेवकके हाथ शीघ्र घर भिजवा दिये ॥६३०॥ - इसके बाद काललब्धिसे प्रेरित हुआ वह द्विजोत्तम सोमदत्त भक्तिसे विनत होकर और मुनिराजको नमस्कार करके बोला-हे श्रेष्ठ मुनिराज, इस असार संसारमें सत् क्या वस्तु है ? मुनिने कहा-श्री जिनभाषित दया चिह्नसे युक्त अहिंसा धर्म सार है॥६३१-६३२॥ तब उसने फिर पूछा-हे नाथ, कर्मोंका नाशक वह धर्म किस प्रकारसे किया जाता है ? मुनिराजने महाव्रतादिके भेदसे उसे धर्मका स्वरूप बताया ॥६३३।। तब वैराग्यको प्राप्त होकर भव-भ्रमणसे भय-भीत होते हुए उसने उन सुमित्र यतीश्वरके समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ॥६३४॥ गुरुकी सेवासे अगाध सिद्धान्त सागरको पीकर वह किसी एक दिन स्फुरायमान शिखर वाले नाभि पर्वतके ऊपर पहुंचा और अनादि कालीन वासनासे संचित कर्म-सन्तानकी शान्तिके लिए वह नवीन मुनि सूर्यके सम्मुख आतापन योगसे स्थित हो गया ॥६३५-६३६॥ सूर्यके आतापनके वशसे उसके शरीरसे प्रस्वेद बिन्दु निकल आये । मैं ऐसा मानता हूँ कि शरीरके भीतरसे निकलते हुए रोते कर्मोके मानों वे अश्रुबिन्दु ही हैं ॥६३७॥ अथानन्तर किसी रमणीय दिन जब सभी ग्रह अपने-अपने स्थानपर स्थित थे, उस समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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