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________________ श्रावकाचार-संग्रह शास्त्र व्याख्या-विधानवविज्ञानदानपूजाभिः । ऐहिकफलानपेक्षः शासनसद्भासनं कुर्यात् ॥६१३ भरतेन रतन शासने जिनपूजाविभिरात्ततेजसा । धारणीप्रभुना प्रभावना बहुधाख्यत रावणेन च ॥६१४ उमिलाया महादेव्याः पूतिकस्य महीभुजः। स्यन्दनं भ्रामयामास मुनिर्वनकुमारकः ॥६१५ अस्य कथा- बलिनो बलराजस्य हस्तिनागपुरेशितुः । अभूत्पुरोषसामायः पुरोषा गरुडाभिधः ॥६१६ तत्सुतः सोमवत्सौम्यः सोमवत्तः धियां निषिः । पपौ स वाङ्मयं वाधिमगस्तिरिव दुस्तरम् ॥६१७ अहिच्छत्राभिषे गत्वा पुरे सोऽय स्वमातुलम् । शिवभूति लसद्भूति प्रणम्येति व्यजिज्ञपत् ॥६१८ दुर्मुखस्य नृपस्यास्य दिदृक्षा मम मातुल । अतुलप्रतिभावाधिमितो मां नय तत्सभाम् ॥६१९ गर्वपर्वतमारूढो मूढोऽयं भगिनीसुतः । गदित्वेति न भूपालदर्शनं समकारयत् ॥६२० ततोऽसौ पहिलो भत्वा सभायां स्वयमागतः । वैरिकालमहीपालमाशिषा तोषमानयत् ॥६२१ नानाशास्त्रामृतेरेनं रजयित्वा घराघवम् । स्वच्छन्दो लसदानन्दः प्राप मन्त्रिपदं द्विजः॥६२२ तादृशं सम्पदं प्राप्य शास्त्राम्भोनिधिपारगः । तणवदगणयामास मातुलादीन् समन्ततः ॥६२३ शिवभूतेस्ततः पुण्यप्रसूतेर्मातुलस्य सः । यज्ञदत्तां सुतां सौम्ये मुहर्ते परिणीतवान् ॥६२४ और दान, तप, पूजा एवं विद्याओंके अतिशयोंसे जिनधर्मकी प्रभावना करनी चाहिए ॥६१२।। शास्त्रोंका अर्थ व्याख्यान करके, विद्या दान देकर, निर्दोष विशिष्ट ज्ञान उपार्जन कर, दान देकर और पूजा-प्रतिष्ठादिके द्वारा इस लोक सम्बन्धी फलकी अपेक्षा नहीं करता हुआ जैन शासनका सत्-प्रकाशन करे ॥६१३॥ जेन शासनमें निरत भरत चक्रवर्तीने चक्रका तेज प्राप्त कर पृथ्वीका स्वामी बनकर जिनपूजादिके द्वारा जैन शासनकी अनेक प्रकारसे प्रभावना की । इसी प्रकार रावणने भी अनेक प्रकारसे जैन शासनकी प्रभावना की ॥६१४।। कहा भी है-श्री वजकुमार मुनिने पूतिक राजाको महादेवी उर्मिलाका जैन रथ नगरमें घुमाया ॥६१५॥ इसकी कथा इस प्रकार है-हस्तिनापुरके बलशाली राजा बलराजके गरुड़ नामका एक पुरोहित था, जो कि सभी पुरोहितोंमें अग्रणी था ॥६१६॥ उसका पुत्र सोम (चन्द्र)के समान सौम्य, और लक्ष्मीका निधान सोमदत्त था। उसने अगस्त्य ऋषिके समान वाङ्मय रूप दुस्तर समुद्रको पी लिया था, अर्थात् वह शास्त्र-समुद्रका पारगामी था ॥६१७।। वह किसी समय अहिछत्र नामके नगरमें गया और वहां विभूतिसे सुशोभित शिवभूति नामके अपने मामाको प्रणाम कर उनसे उसने यह प्रार्थना की ॥६१८॥ हे मामा, यहाँके दुर्मुख नामके राजाके दर्शन करनेकी मेरी इच्छा है इसलिए अनुपम प्रतिभाके सागरभूत मुझे उनकी राजसभामें ले चलो ॥६१९।। यह मेरी बहिनका पुत्र गर्वके पर्वत पर आरूढ़ है, मूढ़ है, ऐसा कहकर उसने उसे राजाके दर्शन नहीं कराये ॥६२०।। तब वह ग्रहिल होकर अर्थात् किसी उपाय विशेषसे स्वयं ही राज-सभामें जा पहुंचा और वैरियोंके लिए काल-स्वरूप राजाको उसने अपने आशीर्वादसे सन्तुष्ट किया ॥६२१॥ उसने अनेक शास्त्रोंके वचनामृतोसे इस राजाका मन अनुरंजित करके उस स्वच्छन्द आनन्दको प्राप्त द्विजने मंत्रीका पद प्राप्त कर लिया ॥६२२॥ इस प्रकारको सम्पदाको पाकर शास्त्र-समुद्रका पारगामी वह सोमदत्त अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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