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श्रावकाचार-सारोबार गङ्गा प्रक्षीणरङ्गास्तपन-शशिनां त्यक्तमाना विमानाः दिङ्नागाः कम्पिताङ्गा भयभरचलिता पवंताः सर्वतोऽमी। लेखा एतत्किमित्यारवमुखरमुखास्त्यक्तमुद्राः समुद्राः
इत्थं भू-स्वर्गलोको मुनिचरणवशात्क्षोभमाप्तौ तदानीम् ॥६०५ तदा सुरा. समागत्य किञ्चिच्चकितमानसाः। बद्धवा बलि मुनेविष्णोः पादद्वयमपूपुजन् ॥६०६ इत्थं शासनवात्सल्यकरणप्रवणो मुनिः । यतीनां जितकामानामुपसर्ग न्यवारयत् ॥६०७ चत्वारो मन्त्रिणस्तेऽपि नत्वा विष्णुं मुनीश्वरम् । जगृहुस्त्यक्तकौटिल्याः धावकवतमादरात् ॥६०८ विष्णुर्मुनिगुरोरन्ते जिनशासनवत्सलः। आगत्य विक्रियाशल्यमुज्जही जनितावरः ॥६०९ तपसा दुःकरेणासौ विघातं घातिकर्मणाम् । कृत्वा केवलमुत्पाद्य प्रपेदे पदमुत्तमम् ॥६१०
स सप्तशतयोगिनां परमयोगशुद्धात्मनामकम्पनतपस्विनां द्विजवरैः कृतपीडनम् । निवार्य परद्धितो निखिलकर्मसर्वकषो जगाम पदमव्ययं य इह सोऽस्तु विष्णुर्मुवे ॥६११
इति वात्सल्याङ्गे विष्णुकुमारकथा ॥७॥ उक्तं च-- आत्मा प्रभावनोयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपो जिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥६१२ पैरको मनुष्य लोकमें अवकाश न पानेसे आकाशमें घुमाना प्रारम्भ किया ॥६०३-६०४॥ उस समय गंगानदीकी धारा प्रक्षीण हो गई, सूर्य-चन्द्रके विमान अपना अभिमान छोड़कर कांपने लगे, दिग्गज कम्पित शरीर वाले हो गये, भयके भारसे ये सभी पर्वत चलायमान हो गये, देवगण 'यह क्या हो रहा है' इस प्रकार मुखसे शब्दोच्चारण करने लगे और समुद्रोंने अपनी मुद्रा (मर्यादा) तोड़ दी अर्थात् उनका पानी द्वीपके भीतर आने लगा। इस प्रकारसे यह भूलोक और स्वर्गलोक मुनिके चरण-परिभ्रमणके वशसे उस समय महाक्षोभको प्राप्त हुए ॥६०५॥ तब कुछ चकित चित्त होते हए देवोंने आकर और बलिको बांधकर विष्ण मुनिराजके दोनों चरणोंकी पूजा की ॥६०६। इस प्रकार जैन शासनके वात्सल्य करने में प्रवीण विष्णु मुनिने कामनाओंके जीतनेवाले मुनिराजोंके उपसर्गको निवारण किया ॥६०७||
उस समय उन चारों मंत्रियोंने विष्णु मुनिराजको नमस्कार कर और अपनी कुटिलता छोड़कर आदरसे श्रावकके व्रतोंको ग्रहण किया ।।६०८।। तत्पश्चात् जिन-शासन-वत्सल विष्णु मुनि ने अपने गुरुके समीप आकर और लोगोंसे आदर पाकर विक्रियाशल्यका परित्याग किया, अर्थात् प्रायश्चित्त लिया ॥६०९।। पश्चात् दुष्कर तपश्चरण करके घातिकर्मोका विनाश कर और केवलज्ञानको उत्पन्न कर अन्तमें उत्तम मोक्ष पदको प्राप्त किया ॥६१०॥
परमयोगसे जिनकी आत्माएं शुद्ध हैं, ऐसे अकम्पनाचार्यके सात सौ मुनियोंके बलि आदि ब्राह्मणोंके द्वारा किये गये उपसर्गको अपनी परम ऋद्धिसे निवारण कर पुनः सर्व कर्मोका क्षय करके जो अव्यय पदको प्राप्त हुए, वे विष्णु भगवान् इस लोकमें सर्वजनोंके प्रमोदके लिए होवें ॥६११॥
यह वात्सल्य अंगमें विष्णु कुमार मुनिकी कथा है ॥७॥ अब प्रभावना अंगका वर्णन करते हैं। इसके विषयमें कहा गया है-रत्नत्रयके तेजसे सदा ही अपनी आत्माको प्रभावयुक्त करना चाहिए।
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