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________________ १४ श्रावकाचार-संग्रह सत्सु पीडां वितन्वतं दुर्जनं धारयेत्प्रभुः । स चेत्स्वयं तया केन सुधियापि निवार्यते ॥५९१ ज्वलनः प्रज्वलन्नेष पयसा सुमिषिध्यते । तच्चेत्स्वयं तदा तस्य शान्तिः केन विधीयते ॥५९२ अथवादः परित्यज्य कुरु कृत्यं ममोदितम् । यावन्नायाति तेऽवश्यमपायः पद्मभूपते ॥५९३ सतां शीतलभावानां तापनं न सुखप्रदम् । गाढतप्तं न कि तोयं दहत्यङ्गं शरीरिणाम् ॥५९४ तनिवारय सन्तापं कुंवन्तं यतिनां बलिम् । अन्यथा तु विनाशस्ते भविष्यति न संशयः ॥५९५ ततो नत्वा नृपः प्राह यतीन्द्र बलिमन्त्रिणे । राज्यं सप्ताहपर्यन्तमदोत किं करोम्यहम् ।।५९६ यतो जानासि यद्देव तत्स्वमेव द्रुतं कुरु । प्रस्फुरन्महसे वीपो भास्वते किमु दीयते ॥५९७ शत्रुजिष्णुस्ततो विष्णुगत्वा वामनवेषभृत् । यागस्थाने महोत्साहो वेदोच्चारमचीकरत् ॥५९८ अथ तत्पाठसंहृष्टो वृष्टवा बलिरवोचत । यत्तुभ्यं रोचते विप्र तद्याचस्व निजेच्छया ॥५९९ वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञस्त्वरितं वामनो जगौ । यच्छ स्वच्छमते पृथ्वों मह्यं पादत्रयं मुदा ॥६०० ततोऽसौ भणितो लोकैः प्रार्थयस्वाधिकं बुध । तावदेव पुनः सोऽपि न हि लोभो महात्मनाम् ॥६०१ वत्तं गृहाण ते भूमेया पादत्रयं मुदा । हस्तोदकविधानेन कौटिल्यात्स समाददौ ॥६०२ पापस्यास्य फलं भुक्ष्व पापिन्नित्थमुदीरयन् । विक्रियालब्धिसामर्थ्याद् व्यजम्भत स वामनः ॥६०३ बत्तो देवगिरी पूर्वो द्वितीयो मानुषोत्तरे । अवकाशं विनाऽऽकाशे तृतीयश्चाभ्रमत्क्रमः ॥६०४ दुर्जनका निवारण करना चाहिए। वह यदि स्वयं ही उपद्रव करने लगे तो कौन बुद्धिमान् उसे रोकेगा ? प्रज्वलित यह अग्नि जलसे बुझ जाती है। वह यदि जलसे और भी प्रज्वलित होने लगे तब उसकी शान्ति किससे की जायगी ॥५९१-५९२।। हे पद्मभूपाल, अब मेरे कथनानुसार और सब छोड़कर बैसा कार्य कर, जिससे कि तेरे यह अपवादरूप अपाय प्राप्त न हो ॥५९३।। शीतल स्वभाववाले सन्त जनोंको दुःख-सन्ताप पहुँचाना सुखप्रद नहीं है। अत्यन्त तपाया गया जल क्या देहधारियोंके देहको नहीं जलाता है ? अवश्य ही जलाता है ॥५९४॥ इसलिए मुनियोंको सन्ताप करनेवाले बलिको रोक । अन्यथा तेरा अवश्य विनाश होगा, इसमें कोई संशय नहीं है ॥५९५॥ __ तब पद्मराजा विष्णु मुनिराजको नमस्कार करके बोला-हे यतीन्द्र, मैंने बलि मंत्रीको सात दिन तकके लिए राज्य दिया हुआ है। अब मैं क्या कर सकता हूँ ॥५९६॥ इसलिए हे देव, तुम जैसा उचित समझो, वैसा ही उपाय शीघ्र करो। प्रकाशमान सूर्य के लिए दीपक क्या दिखाया जाता है ॥५९७॥ तब शत्रुओंके जीतने वाले विष्णु मुनिराजने वामनका वेष धारण कर और यज्ञस्थानपर जाकर महान् उत्साहसे वेद-मंत्रोंका उच्चारण किया ॥५९८।। तब उनके मंत्र-पाठसे अति हर्षित हुआ बलि उन्हें देखकर बोला-हे विप्र, तुझे जो रुचिकर लगता हो, वह अपनी इच्छासे मांग ॥५९९।। तब वेद-वेदाङ्गका रहस्यज्ञाता वामन शीघ्र बोला--हे स्वच्छमते, मुझे हर्षसे तीन पद प्रमाण पृथ्वी दो ॥६००॥ तब लोगोंने वामनसे कहा-हे विद्वन्, कुछ अधिक मांग । वामनने कहा-बस मुझे उतनी ही भूमि पर्याप्त है। महात्माओंको लोभ नहीं होता है ॥६०१॥ बलिने कहा-मैंने तुझे हर्षसे तीन पद प्रमाण भूमि दी, तू उसे ग्रहण कर । तब हस्तमें जल ग्रहण कर कुटिलतासे उसने उसे ग्रहण कर लिया ॥६०२॥ 'हे पापिन्, तू इस पापका फल भोग' इस प्रकार कहते हुए उस वामन वेष धारक विष्णु मुनिराजने विक्रियालब्धिकी सामर्थ्यसे अपने पैरको फैलाया और पहिला पद तो देवगिरि (मेरु) पर रखा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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