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________________ श्रावकाचार सारोद्वार एकतः कर्तुमारब्धो यज्ञो वेदोद्भवैः पदैः । अन्यतस्तु मुनीन्द्राणामुपसर्गं सुदारुणम् ॥५७७ मद्यपानरतोच्छिष्टशरावोत्सर्जनादिभिः । तृणपत्रभवैधू मैः पीडिता मुनयो भृशम् ॥५७८ तदा सालम्बमालम्ब्य प्रत्याख्यानं मुनीश्वराः । उपसर्गसहास्तस्थुः कायोत्सर्गवशंवदाः ॥५७९ मिथिलायामथ ज्ञानी श्रुतसागरचन्द्रभाक् । श्रवणं श्रमणं दृष्ट्वा कम्पमानं नभस्तले ॥५८० हा हा कापि मुनीन्द्राणामुपसर्गोऽतिदारुणः । वर्ततेऽवृत्तपूर्वोऽयं जगादेति दयार्द्रधीः ॥५८१ क्षुल्लक: पुष्पदन्ताख्यः पप्रच्छासौ ससंभ्रमः । क्व नायेति गुरुः प्राह स हास्तिनपुरे पुरे ॥५८२ कुतोऽपवर्तते तेषामुपसर्गो जगौ गुरुः । विक्रियालब्धिसामर्थ्याद्विष्णोमंच्छिष्यतः स्फुटम् ॥५८३ सुनोन्द्र विष्णुनामानं भूमिभूषणप ते । वसन्तं क्षुल्लको गत्वा तमुदन्तमबूबुधत् ॥५८४ किमस्ति विक्रियालब्धिर्ममेति स मुनीश्वरः । बाहुं प्रसारयामास परीक्षणकृते तदा ॥५८५ विभिद्य भूधरं दूरं निरुद्धप्रसरः करः । तथा गतो यथा सिन्धोर्लब्धवान् जलमज्जनम् ॥५८६ विक्रियालब्धिसद्भावमिति विज्ञाय तत्त्वतः । गत्वा पद्मनृपं प्राह विष्णुर्मुनिमतल्लिका ॥५८७ किमारब्धमिदं भ्रातः राज्यं पालयता त्वया । कुरूणां जितशत्रूणां यत्र क्वापि कुलेऽभवत् ॥५८८ दुष्टानां निग्रहं शिष्टजनानां परिपालनम् । यः करोति स एव स्यान्नरपालो विशालघोः ||५८९ मुनीनामपि शिष्टानां कारयेत् त्वमिवात्र यः । उपसगं स दुर्बुद्धिः कुतस्त्यो हि नराधिपः ||५९० तृणोंका एक मण्डप वहां बनवाकर क्रूर कर्म करनेमें उद्यत उस बलिने एक ओर तो वेदोक्त मंत्रपदोंसे यज्ञ कराना प्रारम्भ किया और दूसरी ओर मुनियोंके ऊपर अति दारुण उपसर्ग करना प्रारम्भ किया ||५७६-५७७|| मदिरा पान करनेवालोंके जूठे सिकोरे ऊपर फेंकने आदिसे और तृण-पत्रोंसे उठे हुए एसे मुनियोंको उसने अति पीड़ित किया || ५७८|| तब सब मुनिवर सावधि प्रत्याख्यान स्वीकार करके उपसर्गको सहन करते हुए कायोत्सर्ग धारण करके स्थित हो गये || ५७९ || मिथिला नगरीमें महाज्ञानी सागरचन्द्र नामके प्रसिद्ध आचार्यने आकाशतलमें श्रवण नक्षत्रको कंपता हुआ देख कर कहा - हाय, हाय, कहींपर मुनियोंके ऊपर अतिदारुण उपसर्ग हो रहा है ? ऐसा घोर उपसर्ग इससे पूर्व कभी नहीं हुआ। इस प्रकार उन दयार्द्रा बुद्धिवाले आचार्यने कहा ।।५८०-५८१।। तब उसके समीपस्थ पुष्पदन्त नामक क्षुल्लकने आश्चर्य चकित होकर पूछाहे नाथ, कहाँपर वह हो रहा है ? गुरुने कहा- हस्तिनापुर नगरमें वह उपसर्ग हो रहा है ।। ५८२ | क्षुल्लकने पूछा--उनका उपसर्ग कैसे दूर होगा ? गुरुने कहा- मेरे शिष्य विष्णु मुनिराजकी विक्रियाब्धि की सामर्थ्य से दूर होगा || ५८३ || तब भूमिभूषण पर्वतपर विराजमान विष्णु नामवाले मुनीन्द्रके पास जाकर उस क्षुल्लकने यह सब वृत्तान्त कहा || ५८४ || तब उन मुनीश्वरने 'क्या मुझे विक्रियाब्धि प्राप्त है ? इस बातकी परीक्षा करनेके लिए अपने हाथको पसारा || ५८५|| तब उनका हाथ पर्वतको भेदकर अन्यके प्रसारको रोकता हुआ इतनी दूर चला गया कि उसने समुद्रके जल-मज्जनको प्राप्त कर लिया || ५८६ || तब 'मुझे वास्तवमें विक्रियालब्धि प्राप्त हुई है' यह जानकर मुनियोंमें श्रेष्ठ विष्णु मुनिराजने जाकर पद्मराजासे का - हे भाई, राज्यको पालन करते हुए तूने यह क्या अनर्थ प्रारम्भ कर रक्खा है ? ऐसा तो शत्रुओंको जीतनेवाले कुरुवंशियोंके कुलमें कभी भी कहीं नहीं हुआ है ।। ५८७-५८८ || जो दुष्टोंका निग्रह और शिष्टजनोंका परिपालन करता है वह विशाल बुद्धिवाला नर-पालक राजा कहलाता है ||५८९|| किन्तु जो इस लोकमें तेरे समान शिष्ट मुनिजनोंके ऊपर भी ऐसा उपसर्ग कराता है, वह दुर्बुद्धि मनुष्योंका स्वामी राजा कैसे कहा जा सकता है ||५९०॥ राजाको तो सन्तजनोंपर पीड़ा उपद्रव करनेवाले ४० Jain Education International ३१३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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