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________________ १०५ भावकाचार-सारोबार धारालः करवालोऽभूत् पुष्पमाला पतन्नपि । अगण्यपुण्यतः किंवा न स्याल्लोकोत्तरं नृणाम् ॥४७२ पुष्पमालायते सर्पः पञ्चास्यो हरिणायते । बरिमित्रायते नूनं धर्मात्सर्मशालिनाम् ॥४७३ अहो पुण्यमहो पुण्यमुच्चरन्तः सुरासुराः । अस्योपरि स्फुरदर्षात्पुष्पवर्ष वितेनिरे ॥४७४ साधु साधु जिनेशानचरणाम्भोजषट्पदः । साषु प्रविलसच्छीलजलस्नपितभूतलः ४७५ इत्थमानन्वथुस्फारपूरपूरितमानसाः । सर्वतो वारिषेणस्य वितेनुः स्तवनं जनाः ४६ सेवकेभ्यः समाकणं तद्-वृत्तान्तमयादितः । श्रेणिकोऽपि महीपालः पश्चातापमुपागमत् ७७ अविचायँव कुर्वन्ति येऽनार्याः कार्यमञ्जसा । पश्चात्तापहता हन्त तेऽत्र शोचन्ति सन्ततम् ॥७८ भूपालो विलसद-भालो गत्वा शवपदं क्षणात । तितिक्षा लम्भयामास तनयं विनयाञ्चितम् ७९ ततः स विधुच्चौरोऽपि धरालुलितमस्तकः । नमस्कृत्य महोपालं जगाव निजचेष्टितम् ॥४८० इदं मे चेष्टितं देव गणिकासक्तचेतसः। वारिषेणस्तु शुद्धात्मा ध्यानलोलावशंववः ॥४८१ ततो नृपतिना वारिषेणोऽभाणि विशुद्धषीः । आगच्छ वत्स गच्छावः स्वगेहं विलसदनम् ॥४८२ अद्राक्षमहमद्येव प्रातिकूल्यं स्वकर्मणः । अतस्तात जिनेशानचरणो शरणं मम ॥४८३ इत्यं संसारसम्भोगसुखनिविष्णमानसः । सूरसेनान्तिके भक्त्या वारिषेणस्तपोऽग्रहीत ॥४८४ चिद्रूपध्यानसम्भूतप्रमोदमदमेदुरम् । स्वान्तं वहन् मुनिः शान्तो विजहार महीतलम् ॥४८५ विकराल तलवार गलेपर गिरते ही फूलोंकी माला हो गई। ग्रन्थकार कहते हैं कि अगण्य पुण्यसे मनुष्योंके क्या लोकोत्तर कार्य नहीं हो जाता है, अर्थात् सभी कुछ हो जाता है ।।४७२॥ सद्धर्मशाली जीवोंके धर्म-प्रभावसे साँप फूलमाला बन जाता है, सिंह हरिण जैसा हो जाता है, और शत्रु भी मित्रके समान आचरण करने लगता है।।४७३|| उसी समय "अहो आश्चर्यकारी पुण्य है, आश्चर्य जनक पुण्य है" इस प्रकारसे उच्चारण करते हुए सुर-असुरोंने इस वारिषेणके ऊपर हर्षसे स्फुरायमान होकर फूलोंकी वर्षा की ॥४७४॥ जिनेन्द्रदेवके चरण-कमलोंका चंचरीक (भ्रमर) साधुवाद, साधुवाद है, अत्यन्त विलसमान सत् शीलरूप जलसे भूतलको स्नापित करनेवाला यह वारिषेण साधुवादका पात्र है ।।४७५।। इस प्रकार स्फुरायमान आनन्दके पूरसे पूरित हैं मुख जिनके ऐसे वहां उपस्थित सभी लोग वारिषेणकी सर्व ओरसे स्तुति करने लगे ॥४७६।। तब सेवकोंके द्वारा आदिसे लेकर यह सब वृत्तान्त सुनकर राजा श्रेणिक भी पश्चात्तापको प्राप्त हवा ॥४७७|| जो अनार्य पुरुष विना विचार किये ही इस प्रकारसे शीघ्र कार्य करते हैं वे पश्चातापसे पीड़ित होते हुए सदा ही शोक करते रहते है ।।४७८॥ तब शोभायमान भालवाला वह भूपाल भी शीघ्र ही एक क्षणके भीतर श्मशान भूमिमें जाकर विनय-युक्त वारिषेण पुत्रसे क्षमा याचना करने लगा ॥७९॥ तभी उस विद्यच्चोरने भी आकर पृथ्वीपर अपना मस्तक रगड़ते हुए राजा श्रेणिकको नमस्कार करके अपनी सारी चेष्टा कही ॥४८०॥ और यह भी कहा कि यह शुद्ध आत्मा वारिषेण तो ध्यान करने में ही एकाग्र चित्त इसीप्रकारसे अवस्थित है। तब राजाने उस निर्मल बुद्धिवाले वारिषेणसे कहा-हे वत्स, आओ, अपन दोनों अपने धनादिसे परिपूर्ण राजभवनको चलें ॥४८१-४८२।। तब वारिषेण बोला-हे तात! मैंने अपने कर्मोकी प्रतिकूलता आज स्वयं ही देख ली है, अतः अब तो जिनेश्वरके चरण ही मेरे शरण हैं ।।४८३।। इस प्रकार कहकर संसार, शरीर, भोगोंके सुखसे विरक्त चित्तवाले उस वारिषेणने सूरसेन आचार्यके समीप जाकर भक्तिपूर्वक तपको ग्रहण कर लिया ॥४८४॥ दीक्षा ग्रहण करनेके पश्चात् चिद-रूपसे ध्यान करनेसे उत्पन्न हुए आनन्दसे आनन्दित ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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