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________________ २०६ श्रावकाचार-संग्रह ग्रामे पलाशकूटाल्ये श्रीश्रेणिकमहीपतेः । अग्निभूत्यभिधो मन्त्री नीतिशास्त्रविशारदः ॥४८६ तत्सूनुः पुष्पडालाख्यो वारिषेणं मुनीश्वरम् । चर्यार्थमन्यदाऽऽयातं स्थापयामास सादरः ४८७ ततः कालोचितं शुद्धं दत्तं तेन मुदा स्वयम् । भोज्यं शरीररक्षार्थं भुक्तवान् स मुनीश्वरः ॥४८८ अथाऽऽपृच्छच निजां भार्यां गच्छता मुनिना समम् । चचाल पुष्पडालाख्यो धृत्वा हस्ते च कुण्डिकाम् ॥४८९ यत्राssवाभ्यां पुरा स्वामिन् लीलया रन्तुमागतम् । तं वनं निकटं पश्य पक्षिलक्षसमाकुलम् ॥४९० प्रीणितप्राणिसङ्घातः पचेलिमफलोत्करैः । माकन्दतरुराभाति पुरः साधुरिव स्फुरन् ॥४९१ aari कमलाकीर्ण हंसलीलापदं स्थिरम् । भवच्चित्तमिव स्वच्छं लालसोति पुरस्सरः ॥४९२ इथं व्याघुटनार्थं स तरूत्करविराजितम् । प्रदेशं दर्शयामास वह्निभूतितनूरुहः ॥४९३॥ विदपि मुनीशानस्तं गेहगमनोत्सुकम् । गृहीत्वा स्वकरे बालां नीतवान्निजमाश्रयम् ॥ ४९४ ॥ तैस्तैः स वचनैर्नात्वा तं वैराग्यं द्विजोत्तमम् । दीक्षां च ग्राहयामास श्रीमज्जिनमतोदिताम् ॥ ४९५ ॥ पठपि श्रुतं रम्यं भावयन्नपि संयमम् । मास्मार्षीत्स सोमिल्लामक्ष्णा काणां स्वभामिनीम् ॥४१६ होनो गृहीतवीक्षोऽपि विषयाशां न मुञ्चति । कृपणः प्राप्तलक्ष्मीकः किं वा दैन्यं परित्यजेत् ॥४९७ स्यात्सरागस्य दीक्षापि भवभ्रमणकारणम् । गृहस्थतापि नोरागचेतसो मुक्तिपद्धतिः ॥ ४९८ चित्तको धारण करते हुए वे शान्त वारिषेण मुनिराज महीतलपर विहार करने लगे ।।४८५॥ पलाशकूट नामके ग्राम में श्री श्रेणिक महाराजका अग्निभूति नामक नीतिशास्त्र - विशारद मंत्री रहता था ||४८६|| उसके पुष्पडाल नामक पुत्रने किसी एक दिन चर्याके लिए आये हुए वारिषेण मुनीश्वर को सादर पडिगाहा ।।४८७ || तत्पश्चात उसने हर्षसे स्वयं ही कालके अनुसार योग्य शुद्ध भोजन उन्हें दिया और उन मुनीश्वरने शरीरकी रक्षाके लिए उसे खाया ॥ ४८८ || इसके पश्चात् वह पुष्पडाल अपनी स्त्रीसे पूछकर जाते हुए मुनिके साथ उनके कमण्डलुको हाथमें लेकर चल पड़ा ||४८९|| मार्ग में उसने कहा - हे स्वामिन्, जहाँपर पहिले अपन दोनों लीलासे क्रीड़ा करनेके लिए आते थे, वह लाखों पक्षियोंसे व्याप्त वन यह निकटमें है, इसे देखिये ॥४९०॥ अपने पके हुए फलोंके समूहसे प्राणियोंके समुदायको प्रसन्न करनेवाला यह सामने खड़ा हुआ आमका वृक्ष साधुके समान स्फुरायमान होता हुआ शोभित हो रहा है || ४९१ | | कमलोंसे व्याप्त, हंसोंकी लीलावाला आपके चित्तके समान स्वच्छ और स्थिर यह सरोवर सामने कैसा शोभायमान हो रहा है ||४९२ ।। इस प्रकारसे लौटनेके लिए उस वह्निभूतिके पुत्र पुष्पडालने वृक्षोंके समूहसे शोभायमान अनेक प्रदेश वारिषेण मुनिराजको दिखाये ||४९३ ।। परन्तु अपने घरको जानेके लिए उत्सुक उसे जानते हुए भी वे मुनिराज वारिषेण उस पुष्पडालको अपने हाथसे पकड़कर अपने आश्रय स्थानको लिवा ले गये ||४९४|| तत्पश्चात् उन-उन वैराग्य-वर्धक नाना प्रकारके वचनोंसे उस द्विजोत्तम पुष्पडालको संबोधित कर उसे श्रीमज्जिनेद्र प्ररूपित जिनदीक्षा ग्रहण करा दी ।। ४९५ ॥ वह पुष्पडाल मुनि रमणीय शास्त्रको पढ़ते हुए भी और संयमकी भावना भाते हुए भी सोमिल्ला नामकी अपनी कानी स्त्रीको भूल नहीं सका ||४९६ || दीक्षाको ग्रहण करनेपर भी हीन पुरुष विषयोंकी आशाको नहीं छोड़ता है । लक्ष्मीको प्राप्त करनेवाला कृपण क्या अपनी दीनताको छोड़ देगा ? कभी नहीं ॥। ४९७॥ राग-युक्त पुरुषकी दीक्षा भी संसार परिभ्रमणका कारण होती है और राग-रहित पुरुषका गृहस्थपना भी मोक्षका कारण होता है ||४९८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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