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________________ श्रावकाचार-संग्रह मा गाः कान्ते निजस्वान्ते कातरत्वं विलासिनि । अधुनैव विधास्यामि तवाभिप्रेतमतम् ॥४५९ जने निद्राग्रहनस्ते समस्ते सोऽथ तस्करः। निशीथे श्रेष्ठिनः कण्ठाद्धारमावाय निर्गतः ॥४६० हारस्फारप्रभाभारैरेनं विज्ञाय तस्करम् । गेहरक्षामहोजस्का दधावुस्ते समन्ततः ॥४६१ तेभ्यः पलायितुं दस्युरसमर्थत्वमुवहन् । धृत्वा तं वारिषेणस्य पुरोऽदृश्योऽभवद्भुतम् ॥४६२ अग्रभागे लसत्तारहारं ध्यानावलम्बिनम् । तमालोक्य नृपालाय ते वृत्तान्तमचीकथत् ॥४६३ यस्योत्सङ्गे शिरः स्वरं क्षिप्यते सोऽपि चेत्स्वयम् । छिनत्ति पुरतः कस्य तदा पूत्क्रियते प्रभो॥४६४ वायुना यत्र चाल्यन्ते भूधरा अपि सत्वरम् । तृणानां गतसाराणां तत्र कैव कथा भवेत् ॥४६५ वारिषेणोऽपि यत्रेत्थं चुराशीलो महीप्रभो । का वार्ताऽस्मादृशां तत्र दरिद्रोन्निद्रवेतसाम् ।।४६६ श्रोकोतिष्ठिनो गेहरक्षकाणामिदं वचः । श्रुत्वा जज्वाल भूपालो घृतसिक्त इवानिलः ॥४६७ क ध्यानरचना घोरे श्मशाने क्व च चौर्यता । अहो दम्भमहो दम्भं पापिनो मेऽङ्गजन्मनः ॥४६८ इत्युक्त्वाऽसौ महीपालश्चण्डालांश्चण्डमानसान् । वारिषेणशिरश्छेदकृते प्रेरयति स्म वै ॥४६९ इत्थं प्राप्य नृपादेशं मातङ्गा रङ्गसङ्गताः । जग्मुर्गृहीतकौक्षेयाः श्मशानं भूरिभीतिदम् ॥४७० ततः पश्यत्सु लोकेषु तेष्वेकेनातिपापिना । तच्छिरोधी विनिक्षिप्तः करालकरवालकः ॥४७१ लामोगे तो तुम मेरे भर्ता हो और मैं भी तुम्हारी प्रिया हूँ ॥४५८॥ तब विद्युच्चोर बोला हे कान्ते, तू अपने मतमें कातरताको मत प्राप्त हो, हे विलासिनि, मैं अभी हाल ही तेरे अद्भुत अभीष्टको सम्पादित करता हूँ ॥४५९॥ इसके बाद वह विधूच्चोर रात्रिमें समस्त जनोंके निद्रारूप ग्रहसे ग्रस्त होनेपर सेठके कण्ठसे हारको लेकर निकला ॥४६०॥ हारकी स्फुरायमान प्रभाभारसे इसे चोर जानकर घरकी रक्षा करने में कुशल तेजस्वी रक्षक उसको पकड़नेके लिए चारों ओरसे दौड़े ॥४६१॥ उनसे बचनेके लिए भोगनेमें असमर्थताको धारण करता हुआ वह चोर वारिषेणके आगे हारको रखकर शीघ्र अदृश्य हो गया ॥४६२॥ जिसके आगे कान्तियुक्त प्रकाशमान हार रखा हुआ है ऐसे ध्यानावस्थित वारिषेणको देखकर उन गृह-रक्षकोंने राजा श्रेणिकके पास जाकर सर्व वृत्तान्त कहा ॥४६३॥ हे प्रभो, जिसको गोदमें स्वेच्छासे शिर रखते हैं, वही पुरुष यदि स्वयं शिरको काटता है, तो फिर किसके आगे जाकरके प्रकार की जावे ॥४६४|| जहांपर वायके द्वारा पर्वत भी शीघ्र चलायमान कर दिये जाते हैं वहाँपर सार-रहित तुणोंको क्या कथा है ।।४६५॥ हे महोपाल, जहाँपर वारिषेण राजकुमार ही इस प्रकारसे चोरी करनेवाला हो, तो वहाँपर हम सरीखे दरिद्रतासे पीडित परुषोंको क्या बात है॥६६॥ श्रीकीर्तिसेठके गह-रक्षकोंके ये वचन सुनकर राजा श्रेणिक घीसे सींची गई अग्निके समान क्रोधसे प्रज्वलित हो उठा ।।४६७॥ और बोला-कहाँ तो घोर श्मशानमें यह ध्यान रचना, और कहाँ यह चोरी करना। अहो मेरे अंगज इस पापीका यह बड़ा भारी दम्भ है, भारी दम्भ (छल) है ॥४६८|| ऐसा कहकर उस महीपाल श्रेणिकने प्रचण्ड चित्तवाले चाण्डालोंको वारिषेणका शिरच्छेदन करनेके लिए आज्ञा दे दी ॥४६९।।। राजासे इस प्रकारका आदेश पाकर हर्षित होते हुए वे मातंग लोग भारी भयावने श्मशानमें तलवारें ले-ले करके पहुंचे ॥४७०।। तब सर्व लोगोंके देखते-देखते उन चाण्डालोंमेंसे एक अति पापी चाण्डालने वारिषेणके गलेपर विकराल तलवारका प्रहार किया ॥४७१|| तीक्ष्ण धारवाली वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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