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________________ श्रावकाचार-सारोबार २९५ प्रतापन्यक्कृतोद्दण्डमार्तण्डाखण्डमण्डलम् । भूमण्डलमसावेकछत्रं साम्राज्यमन्वभूत् ॥३४६ अथ प्राज्ये प्रभू राज्ये तनुजं चन्द्रशेखरम् । निवेश्य रचयाञ्चके तीर्थानामभिवन्दनाम् ॥३४७ एकदा दक्षिणस्थायां मथुरायां मुनीश्वरम् । गुप्ताचार्य खगाधीशो ववन्दे भक्तिनिर्भरः ॥३४८ तास्ता धर्मकथास्तथ्याः श्रुत्वा श्रोत्रप्रियङ्कराः । गुप्ताचार्यान्तिके भक्त्या क्षुल्लकः स खगोऽभवत् ॥३४९ परोपकारः पुण्याय स्मृत्वेति वचनं व्रती। परोपकारसिद्धयर्थं विद्यारक्षामशिश्रियत् ॥३५० अथोत्तरमथुरायां स यियासुरणुव्रती । अपृच्छदिति कि कस्य वक्तव्यं गुप्तकं मुनिम् ॥३५१ त्रिः पृष्टेनैव तेनेति प्रोक्तं सुव्रतसन्मुनेः । नतिः सुरेवतीराज्या धर्मवृद्धि नवेद्यताम् ॥३५२ एकादशाङ्गयुक्तस्य भव्यसेनस्य सन्मुनेः । नावादि गुरुणा किञ्चिद्यत्तत्स्यात्कारणं परम् ३५३ ततो गत्वा व्रती तत्र वन्दनां स्वगुरोः पराम् । तस्मै सुवतयुक्ताय सुव्रताय न्यवेदयत् ॥२५४ अतुच्छस्तस्य वात्सल्यै हर्षासावणुव्रती । समुद्र इव चन्द्रस्य कृतोल्लासः करोत्करैः ॥३५५ अथोत्थाय श्रुताम्भोधिपारीणस्य महामुनेः । जगाम भव्यसेनम्य परीक्षार्थं स सद्-व्रती ॥३५६ गर्वपर्वतमारूढो विद्यामूढः कृतानतिम् । महात्मा धर्मवृद्धयापि क्षुल्लकं नाभ्यनन्दयत् ॥३५७ वचनस्यापि सन्देहो यत्र संजायते तराम् । भोजनस्य मनुष्याणां तत्र वाञ्छा कुतस्तनी ॥३५८ मार्तण्डके समान प्रचण्ड राजाओंके समूहको तिरस्कृत करके सारे भृमण्डलका एकछत्र साम्राज्य भोगता था ॥३४५-३४६।। किसी समय वह अपने विशाल साम्राज्य पर चन्द्रशेखर नामके पुत्रको बैठाकर तीर्थस्थानोंकी वन्दनाके लिए चला ॥३४७।। एक बार दक्षिण देशमें स्थित मथुरा नगरीमें गुप्ताचार्य नामके मुनीश्वरकी उस विद्याधरेशने भक्तिसे निर्भर होकरके वन्दना की ॥३४८॥ कानोंको प्रिय लगनेवाली उन उन सच्ची अनेकों धर्मकथाओंको सुनकर भक्तिसे प्रेरित हो वह विद्याधर उन गुप्ताचार्य के समीपमें क्षुल्लक व्रतधारी हो गया ॥३४९|| परोपकर पुण्यके लिए होता है । इस वचनका स्मरण करके उस व्रती क्षुल्लकने परोपकारकी सिद्धिके लिए विद्यारक्षाका आश्रय रखा, अर्थात् क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करते समय अपनी जन्मजात विद्याका परित्याग नहीं किया ॥३५०॥ इसके पश्चात् किसी समय उत्तर मथुराको जानेके इच्छुक उस अणुव्रतो क्षुल्लकने अपने गुप्ताचार्य मुनिसे पूछा कि वहाँ क्या किसीसे कुछ कहना है ॥३५१।। तीन बार पूछे जानेपर गुरुने कहा-वहां जो सुव्रत नामके श्रेषः मुनि हैं, उन्हें मेरा नमस्कार कहना और जो वहाँ रेवती रानी है उसे धर्म वृद्धि कहना ॥३५२।। किन्तु उस समय उसी उत्तर मथुरामें ग्यारह अंगश्रुतसे युक्त जो भव्यसेन नामके एक और सन्मुनिरूपसे प्रसिद्ध मुनि थे, उनके लिए गुरुने कुछ भी नहीं कहा । तब उस क्षुल्लकने सोना कि इसमें कुछ कारण विशेष होना चाहिए ॥३५३।। तदनन्तर उस क्षुल्लक व्रतीने वहाँ जाकर उत्तम व्रतोंसे युक्त उन सुव्रत मुनिराजके लिए अपनी गुरुकी परम वन्दनाको निवेदन किया ॥३५४।। उनके भारी वात्सल्यसे वह अणुवती क्षुल्लक अति हर्षित हुआ। जैसे कि चन्द्रमाकी किरणों के समूहसे समुद्र हर्षोल्लाससे उद्वेलित हो जाता है । अर्थात् उमड़ आता है ॥३५५।। इसके पश्चात् वह सद्-वती क्षुल्लक श्रुतसागरके पारंगत उस भव्यसेन नामक महामुनिके पास उनकी परीक्षा करनेके लिए गया ॥३५६॥ इस क्षुल्लकके नमस्कार करनेपर भी गर्व-पर्वतपर आरूढ, विद्यामदसे उन्मत्त उस महात्मा भव्यसेनने 'धर्मवृद्धि' शब्दसे भी उसका अभिनन्दन नहीं किया ॥३५७।। जहाँपर वचन प्रदान करने में भी सन्देह हो, वहांपर मनुष्योंके भोजनकी वांछा भी कैसे संभव हो सकती है ॥३५८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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