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________________ २९४ श्रावकाचार-संग्रह स्दपुत्राय विवित्राय दत्त्वा राज्यं प्रजापतिः । वर्धमानजिनेशानपादमूले तपोऽग्रहीत् ॥३३६ ध्यानानले सजिह्वाले निखिलं वृजिनेन्धनम् । हुत्वा तत्त्वार्थविद् भूपो जग्मिवान्मोक्षमक्षयम् ॥३३७ स्त्रीलिङ्गं त्रिजगन्निन्द्यं तपसा सा महीयसा । हत्वा प्रभावती देवी ब्रह्मस्वर्गे सुखेऽभवत् ॥३३८ इति निविचिकित्साले उद्दायनराजकथा ॥३॥ देवाभासे तथा शास्त्राभासेऽप्याश्चर्यकारिणि । यन्न सङ्गमनं त्रेधा सा मताऽमूढदृष्टिता ॥३३९ स्वधर्मसमये शुद्धे यस्य चित्ते न खलति । मूढता मूढदृष्टित्वं तस्य न स्यादसंशयम् ॥३४० विद्वत्तास्नानमौनादिशालिनामपि दुर्दशाम् । प्रशंसासंस्तवौ कुर्युनं क्वचिच्छुद्धदृष्टयः ॥३४१ उक्तंचभयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥३४२ अन्तरन्तसञ्चारं बहिराकारसुन्दरम् । न श्रद्दध्यात्कुदृष्टीनां मतं किम्पाकसन्निभम् ॥३४३ कादम्बताक्ष्यगोसिंहपीठाधिपतिषु स्वयम् । आगतेष्वपि नैवाभूद रेवतो मूढतावती ॥३४४ अस्य कथासमृद्ध विजयाऽस्मिन् मेघकूटे श्रियोद्धटे । जितचन्द्रप्रभश्चन्द्रप्रभः समभवत्प्रभुः ॥३४५ शान्तिके लिए प्रयत्न करते हैं ॥३३५॥ ऐसा विचार कर उद्दायनराजाने विचित्र नामके अपने पुत्रके लिए राज्य देकर श्रीवर्धमान जिनेन्द्रके पादमूल में जाकर तपको ग्रहण कर लिया । ३३६॥ पुनः वे तत्त्वार्थवेत्ता उदायन प्रज्वलित ध्यानरूप अग्निमें सर्व पापरूप ईंधनको हवन करके अक्षय मोक्षको प्राप्त हुए ॥३३७।। उनकी प्रभावती रानी भी त्रिजगत्-निन्द्य स्त्रीलिंगको महान् तपश्चरणसे विनष्ट करके ब्रह्मस्वर्गमें देवरूप उत्पन्न हुई ॥३३८॥ यह निर्विचिकित्सा अंगमें उद्दायन राजाकी कथा है ॥३॥ . आश्चर्य-कारक देवताभासमें और शास्त्राभासमें त्रियोगसे उनका संगम नहीं करना सो अमूढदृष्टिता मानी गयी है ।।३३९।। जिसके चित्तमें अपने शुद्ध धर्ममें और शुद्ध सिद्धान्तमें मूढ़ता प्रवेश नहीं करती है उसके हो निःसन्देह अमूढदृष्टिता होती है ॥३४०॥ शुद्ध दृष्टिवाले सम्यग्दृष्टि जीवोंको चाहिए कि विद्वत्ता, स्नान, मौन आदि विशिष्ट गुण-शाली भी मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा और संस्तव कभी नहीं करें ।।३४१।। कहा भी है-शुद्धदृष्टि जीवोंको भय, आशा, स्नेह और लोभसे कुदेव, कुशास्त्र और कुलिनियोंको नमस्कार और विनय आदि नहीं करना चाहिए ||३४२।। मिथ्यादृष्टियोंका मत किंपाकफलके सदृश होता है, जैसे किपाकफल भीतरसे खाने पर दुःसदायी फलको देता है और बाहिरो आकार सुन्दर दिखाई देता है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंका मत ऊपरसे आकर्षक और मनोहर दिखता है किन्तु भीतरसे परिपाक-समय दुःखदायी होता है, अतः उनके मतका श्रद्धान नहीं करना चाहिए ॥३४३॥ देखो-कमलासनपर विराजमान ब्रह्माके, गरुड़पर विराजमान विष्णुके, बेलपर विराजमान महेश्वरके और सिंहासनपर विराजमान पच्चीसवें तीर्थकरके स्वयं आनेपर भी (मायाके द्वारा दिखाये जाने पर भी) रेवतीरानी मूढ़तावाली नहीं हुई ।।३४४॥ इसकी कथा इस प्रकार है-इस समृद्धिशाली विजयाध पर्वतपर लक्ष्मीसे शोभित मेघकूट नगरमें चन्द्रकी प्रभाको जीतनेवाला चन्द्रप्रभ नामका राजा था। वह अपने प्रतापसे उद्दण्ड, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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