SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-सारोबार यतयेऽसमंजसं भोज्यं मया दत्तमिति प्रभुः । पश्चात्तापाभितप्तोऽयं स्वं निनिन्द मुहमुंहः ॥३२३ मूलं मोक्षतरोर्बीजं कोर्तेः सत्सम्पदा पदम् । अगण्यैनं विना पुण्यैः पात्रदानं हि लभ्यते ॥३२४ ततः पानीयमानीय शरीराभिषवं मुनेः । चिकीर्षुर्दुःखसन्तप्तो यावदुत्तिष्ठते नुपः ॥३२५ तद्-व्यक्तभक्तिसम्भारभावितात्मा सुरेश्वरः । तावन्मायामपाकृत्य देतवेषमदीदृशन् ॥३२६ दृशा पीयूषषिण्या सिञ्चस्तं श्रीसरोरुहम् । त्रिदिवेशोऽष्टमीचन्द्रभालं भूपालमम्यधात् ॥३२७ सौधर्मेन्द्रः सुधर्मायां सम्यक्त्वाङ्गानि वर्णयन् । अङ्गे निविचिकित्साख्ये त्वां दृष्टान्तमचीकरत् ॥३२८ तच्छत्वा वासवाख्योऽहं सुरः सम्यक्त्वभासुरः । यतिनो रूपमादाय त्वत्परीक्षार्थमागतः ॥३२९ ततो जिह्वाञ्चलास्वादसम्पादनरसोदयम् । भुक्त्वान्नं मायया सर्व वमयं कृतवानहम् ॥३३० मुनेः क्वथितरूपस्य छदि दुर्गन्धिपूरिताम् | प्रतीच्छति कराभ्यां कस्त्वमिवात्रापरो नरः ३३१ अतो निविचिकित्साङ्गप्रतिपालनकोविदः । त्वमेवासि सुराधीशवर्ण्यमानगुणोदयः ।।३३२ इत्यभिष्टुत्य भूपालं तद्-वृत्तान्तं निवेद्य च । तिरोभवत्सुराधीशः प्रस्फुरत्पुलकारः ॥३३३ नमन्नृपशिरोहोरकर सुरपद्युगः । अन्यदा स महीपालो निवेदपदवीमितः ॥३३० दाराः पापभराः स्वबान्धवगणो निःसीममायाचणो लोला शारदनीरदावलिचला मृत्स्वङ्कितं जीवितम् । राज्यं विघ्ननिकाय्यमेतदखिलं देहं च गेहं रुजां ज्ञात्वेत्थं भवशान्तये भवभयाच्छ्रान्ता यतन्ते बुधाः ॥३३५ प्रकृति-विरुद्ध भोजन दिया । इस प्रकार कहता हुआ राजा पश्चात्तापसे संतप्त होकर अपनी बारबार निन्दा करने लगा ॥३२३॥ मोक्षरूपी वृक्षका मूल कीर्तिका बीज और उत्तम सम्पत्तिका स्थान पात्रदान अगण्य पुण्यके विना प्राप्त नहीं होता है । ३२४।। तब पानीको लाकर मुनिका शरीर धोनेकी इच्छासे दुःख-सन्तप्त राजा ज्योंही उठा त्योंही राजाकी स्पष्ट रूपसे व्यक्त की गई भक्तिक भारसे प्रसन्न हुए उस सुरेश्वरने अपनी उस मायाको दूर करके देवका वेष दिखाया ॥३२५-३२६॥ उस देवेशने अपनी अमृत-वर्षिणी दृष्टिसे उस लक्ष्मी-कमल स्वरूप और अष्टमीके चन्द्र-समान ललाटके धारक राजासे कहा ॥३२७॥ सौधर्मेन्द्रने अपनी सुधर्मा नामकी सभामें सम्यक्त्वके अंगोंका वर्णन करते हुए निर्विचिकित्सा अंगमें तुम्हें दृष्टान्तके रूप में कहा था ॥३२८। यह सुनकर सम्यक्त्वसे प्रकाशवान् वासव नामका देव साधुका रूप धारण करके तुम्हारी परीक्षाके लिए यहाँ आया ॥३२९।। और जीभके अग्रभागके आस्वादको सम्पादन करनेवाले रसोंसे व्याप्त सर्व अन्नको खाकर मैंने मायासे उसका वमन किया है ।।३३०॥ सड़े-गले विकृत रूपवाले मुनिके दुर्गन्धि-पूरित वमनको तुम्हारे सिवाय और कौन इस लोकमें ऐसा है जो अपने दोनों हाथोंसे साफ करे ॥३३॥ इसलिए निर्विचिकित्सा अंगके परिपालनमें चतुर और देवेन्द्रके द्वारा वर्ण्यमान गुणोदयवाले तुम ही हो ॥३३२।। इस प्रकार राजाकी स्तुति करके और उक्त सर्ववृत्तान्त निवेदन करके वह देवोंका स्वामी हर्षसे पुलकित शरीर होता हुआ तिरोहित हो गया ॥३३३॥ नमस्कार करते हुए राजाओंके शिरोंपर लगे मणियोंकी किरणोंसे प्रकाशमान चरण युगलवाला वह उद्दायन राजा किसी समय निर्वेदकी पदवीको प्राप्त हुआ ॥३३४|| वह विचारने लगाये दाराएँ पापोंसे भरी हुई हैं। यह अपने बान्धवगण असीम माया करनेमें प्रवीण हैं, यह लक्ष्मी शरद् ऋतुके मेघोंकी मालाके समान चंचल है, यह जीवन मृत्युसे आलिङ्गित है, यह समस्त राज्य विघ्नोंका घर है, और यह देह रोगोंका गेह है, ऐसा जानकर भव-भयसे श्रान्त ज्ञानी जन संसारकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy