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________________ २९२ श्रावकाचार-संग्रह न श्वभ्रायास्थिते क्तिः स्थिति पि विमुक्तये । किन्तु संयमिनामेषा प्रतिज्ञा ज्ञानचक्षुषाम् ॥३१२ यावन्मिलत्येव करद्वयं मे सामर्थ्यमास्ते स्थितिभोजने च। भुजिक्रियां तावदहं करिष्ये मुञ्चेऽन्यथा तां परलोकसिद्धये ॥३१३ अदैन्यवैराग्यपरीषहादिकृतोऽयं खलु केशलोचः । • प्रसिद्धवीरव्रतनिर्ममत्वप्रकाशनार्थं च यतीश्वराणाम् ॥३१४० उक्तं चबालवृद्धगदग्लानान्मुनीनौदायना स्वयम् । भजन्निविचिकित्सात्मा स्तुति प्राप पुरन्दरात् ॥३१५ अस्य कथारम्ये वत्साभिधे देशे पुरे रोरकनामनि । उद्दायनो महीपालो लसद्भालो व्यराजत ॥३१६ प्रभावत्या समं सौख्यं भुञ्जानस्य विभोगहे। मध्यंदिनेऽथ भिक्षायै मुनिरेकः समागतः ॥३१७ तिष्ठ तिष्ठति सम्भाष्य संस्थाप्य च मुनीश्वरम् । ततः प्रासुकमाहारं ढौकयामास भूपतिः ॥३१८ दुष्टकुष्टवणापूतभक्षिकाजालसङ्कलम् । दुर्गन्धं बिभ्रतं देहं मुनिमैक्षिष्ट पार्थिवः ॥३१९ तेन सप्तगुणाढयेन स्वयं दत्तं महीभृता । स्वादं स्वाद चखादासो सवं भोज्यं मुनीश्वरः ॥३२० ततदिः कृता तेन मायया मुनिनां तथा। यथा दुर्गन्धतो भीताः पलायाञ्चक्रिरे जनाः ॥३२१ प्रतीच्छन् स महीपाल: पुरो यावद् व्यवस्थितः । अचच्छदंत्पुनस्तावत्तत्पन्या उपरि व्रती ॥३२२ ग्रहसे ग्रसित सरागियोंके द्वारा नग्नताकी निन्दा को जाती है ॥३११॥ खड़े होकर भोजन करना नरकके लिए कारण नहीं है और बैठकरके भोजन करना मुक्तिके लिए भी कारण नहीं है। किन्तु ज्ञान-नेत्रवाले संयमो जनोंकी यह प्रतिज्ञा होती है कि जब तक मेरेमें दोनों हाथ परस्पर मिले हुए हैं और जब तक खड़े होकर भोजन करनेकी सामर्थ्य है, तब तक ही मैं भोजनकी क्रियाको करूंगा अन्यथा सामर्थ्यके अभावमें परलोककी सिद्धिके लिए में भोजनको क्रियाको छोड़ दूंगा ॥३१२३१३।। यतीश्वर लोग जो यह केशोंका लोंच करते हैं, वह अदीनता और वैरागताको रक्षाके लिए, परीषहादिको सहन करनेके लिए और अपनी प्रसिद्ध वीरचर्याके प्रकट करने तथा शरीरसे निर्ममत्व प्रकाशित करनेके लिए करते हैं ॥३१४॥ कहा भी है-बाल, वृद्ध और रोग-ग्रस्त मुनियोंकी ग्लानि-रहित होकर स्वयं सेवा करनेवाला निर्विचिकित्सित आत्मावाला उद्दायनराज इन्द्रसे प्रशंसाको प्राप्त हुआ ।।३१५।। इसकी कथा इस प्रकार है-वत्सनामके रमणीय देशके रोरक नामक नगरमें विशाल भालवाला उद्दायन नामका राजा राज्य करता था ॥३१६।। अपनी प्रभावती रानीके साथ सुख भोगते हुए उस राजाके भवनमें मध्याह्नके समय एक मुनि भिक्षाके लिए आये ॥३१७॥ राजाने उन मुनीश्वरको 'तिष्ठ-तिष्ठ' कहकर ठहराया और यथाविधि प्रासुक आहार दिया ॥३१८॥ दुष्ट कुष्टके घावसे बुलाई गई मक्खियोंके जालसे व्याप्त दुर्गन्ध वाले देहके धारक मुनिको राजाने देखा ॥३१९।। तब दातारके सप्त गुणोंसे युक्त उस राजाने स्वयं ही अपने हाथोंसे स्वाद-युक्त सुन्दर-सुन्दर भोजन मुनिको दिया और मुनीश्वर उस सर्व भोजनको खा गये ॥३२०॥ भोजन करनेके पश्चात् ही उस मायाचारी। मुनिने अपनी मायासे ऐसा भयंकर दुर्गन्ध मय वमन किया कि जिसकी दुर्गन्धसे पीड़ित होकर लोग इधर-उधर भाग गये ॥३२१॥ राजा जब उस मुनिके वमनको दूर कर रहा था कि तभी उस साधुने राजाकी रानीके ऊपर पुनः वमन कर दिया ॥३२२।। तब 'मैने साधुके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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