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________________ श्रावकाचार-सारोबार २९१ ते तदर्थमजानाना मिथ्यात्वोदयदूषिताः । वयैव विचिकित्सन्ति स्वभावकुटिकाः खलाः ॥३०२ स्वस्यान्यस्य च कायोऽयं बहिःशोभामनोहरः । अन्तर्विचार्यमाणः स्याबौदुम्बरफलोपमः ॥३०३ देहदूषणकरावलोकनायः सुतत्त्वमतये जुगुप्सते। कालिकाभयवशात्स मुग्घधीः काञ्चनं त्यजति हस्तसङ्गतम् ॥३०४ शुद्धात्मध्याननिष्ठामायतीनां ब्रह्मचारिणाम् । वतमन्त्रपवित्राणामस्नानं नात्र दूष्यते ॥३०५ अथवा उक्तं चयदेवाङ्गमशुद्धं स्यादभिः शोध्यं तदेव हि । अङ्गलो सर्पदष्टायां न हि नासा निकृन्त्यते ॥३०६ अथ कापि दोषे विधिर्जेयासङ्गे कापालिकात्रेयीचाण्डालशबरादिभिः । आप्लुत्य दण्डवत्सम्यक् जपेन्मन्त्रमुपोषितः॥३०७ एकरातात्त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके । दिने शुध्यन्त्यसन्देहमृतौ व्रतगताः स्त्रियः ॥३०८ नग्नत्वमेतत्सहजं जगत्यां वस्त्रादिभूषाग्रहणं विकारः । तत. सदाचारविचारचञ्चविद्वेषमस्मिन् खलु को विदध्यात् ॥३०९ विकारवति युक्तं स्याद्वस्त्रस्यावेष्टनं किल । अविकाराङ्किते पुंसि न प्रशंसास्पदं हि तत् ॥३१० परिग्रहं विमुञ्चद्भिररीक्रियते सदा । परिग्रहग्रहग्रस्तैनंग्नत्वं विनिन्धते ॥३११ मनुष्य निन्दाके अयोग्य निर्दोष भी जिनशासनको निन्दा करते हैं ॥३०१।। 'जैन साधुओंके उक्त कार्योंके रहस्यभूत अर्थको नहीं जानते हुए मिथ्यात्व कर्मके उदयसे दूषित बुद्धिवाले वे स्वभावसे कुटिल दुर्जन लोग वृथा ही जिनशासन और उसके धारक साधुओंसे ग्लानि करते हैं ।।३०२॥ अपना अथवा दूसरेका यह शरीर बाहिरी शोभासे ही मनोहर दिखता है। किन्तु भीतरी स्वरूपसे विचार किया गया यही शरीर उदुम्बर फलके समान बीभत्स दिखाई देगा ॥३०३॥ शरीरके दूषणोंको अवलोकन करके जो पुरुष सुन्दर तत्त्वज्ञानी साधुसे घृणा करता है, वह मूढ़बुद्धि मानों कालिमाके भयसे हाथमें आये हुए सुवर्णको छोड़ता है ॥३०४।। जो शुद्ध आत्माके ध्यानमें संलग्न हैं, ब्रह्मचारी हैं और व्रत एवं मंत्रसे पवित्र हैं, ऐसे साधुओंका स्नान नहीं करना दोषको प्राप्त नहीं होता है ।।३०५।। अथवा कहा भी है-शरीरका जो अंग अशुद्ध हो, वही जलसे शुद्ध करनेके योग्य है। (सारे शरीरको जलसे शुद्ध करनेकी आवश्यकता नहीं है ।) अंगुलीके सर्प-द्वारा काट लिये जानेपर (अंगुली ही काटी जाती है) नासिका नहीं काटी जाती है ॥३०६॥ यदि कभी कहीं शरीरमें अशुचित्व जनित कोई दोष हो जाय, तो उसमें यह विधि जाननेके योग्य है-कापालिका, आत्रेयी (रजस्वला स्त्री) चाण्डाल भील आदि नीच पुरुषसे स्पर्श हो जानेपर शिरसे दण्डवत्, एक जलधारामें स्नान कर उस दिन उपवास करता हुआ मंत्रका जाप करे ॥३०७।। जो व्रत-संयुक्त आर्यिका आदि व्रती स्त्रियाँ हैं, वे एक रातसे लेकर तीन रात तक ऋतु कालमें निःसन्देह उपोषित रहती हुई चौथे दिन स्नान करके शुद्ध हो जाती हैं ॥३०८|| नग्नपना यह प्रत्येक प्राणीका जन्मजात सहज स्वरूप है, वस्त्र और आभूषणादिका ग्रहण करना तो विकार है। इसलिए सदाचारके विचार करने में कुशल कौन बुद्धिमान् पुरुष इस सहजात नग्नत्वमें द्वेष करेगा ॥३०९॥ विकार वाली वस्तुपर वस्त्रका आवरण करना योग्य है। किन्तु निर्विकारसे युक्त पुरुषपर आवरणका होना प्रशंसास्पद नहीं है ॥३१०।। परिग्रहको छोड़नेवालों (वीतरागताको ओर बढ़नेवालों) के द्वारा नग्नता सदी स्वीकार की जाती है। किन्तु परिप्रहरूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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