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________________ २९० श्रावकाचार-संग्रह इति साध्वी निषिद्धापि पद्मश्रीक्षान्तिकान्तिके । प्रावाजीदथवा धर्मे नालस्यं कुरुते कृती ॥२९४ रागद्वेषादिकान् शत्रून् हत्वा ध्यानासिना भृशम् । पक्षमासोपवासादिवतं हर्षादचीकरत् ॥२९५ यथा यथा तनोः पीडा क्षुद्बाधाभिः प्रजायते । तथा तथा गलत्याशु पूर्वकर्माणि देहिनाम् २९६ अप्रशस्तानि कर्माणि हत्वा सा तपसो बलात् । सहस्रारे सुरो जातो व्रतात् किं वा न लभ्यते ॥२९७ सच्छोलाः कति सन्ति नात्र कति वा नार्यो भविष्यन्ति नो नाभूवन् कति वा तथापि कुरुते सैषाधिकं विस्मयम् । लुब्धे व्योमचरे विकारकलिते भिल्ले तथा पुष्पकेऽत्यासक्ते क्षितिपे च कामविकले शीलं यया पालितम् ॥२९८ इति निष्काक्षिते अनन्तमतीकथा ॥२॥ उक्तंचस्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिमता निविचिकित्सता ॥२९९ घनकर्मवशादुपागतैर्मुनिमालोक्य कलङ्कितं गदैः । विचिकित्सति तस्य मानसं स नरः स्तात्सकलापदां पदम् ॥३०० ऊवत्वभुक्तितो नाग्न्यात्स्नानाचमनवर्जनात् । अनिन्द्यमपि निन्दन्ति दुर्दशो जिनशासनम् ॥३०१ तपोंको कर ॥२९२-२९३॥ इस प्रकार पिताके द्वारा भली भांतिसे रोके जानेपर भी उस अनन्तमतोने पद्मश्री आयिकाके समीप दीक्षा ग्रहण कर ली। बुद्धिमान् व्यक्ति धर्मकार्य में आलस्य नहीं करते हैं ।।२९४॥ दीक्षा लेनेके पश्चात् ध्यानरूपी खङ्गसे राग-द्वेषादिके शत्रुओंका नाश करके वह पक्षोपवासमासोपवास आदि व्रत-तपोंको हर्षसे करने लगे ॥२९५।। आचार्य कहते हैं कि जैसे-जैसे भूख-प्यास आदिसे शरीरको पीड़ा उत्पन्न होती है, वैसे-वैसे ही प्राणियोंके पूर्वाजित कर्म शीघ्र गलने लगते हैं ॥२९६।। तपके बलसे वह अनन्तमती अशुभ कर्मोंका विनाश करके (स्त्रीलिंगको छेद कर) सहस्रार स्वर्गमें देव रूपसे उत्पन्न हुई। आचार्य कहते हैं कि व्रत और तपसे क्या नहीं प्राप्त होता है ।।२९७॥ इस संसारमें उत्तम शीलवाली कितनी स्त्रियां नहीं हैं, और भविष्यमें कितनी नहीं होंगी ? तथा भूतकालमें कितनी नहीं हुई हैं ? परन्तु यह अनन्तमतीकी कथा सबसे अधिक आश्चर्य पैदा करती है । देखो-पहिले तो काम-विकारसे युक्त रूप-लोभी विद्याधरके द्वारा हरी गई, फिर कामासक्त भीलसे पीडित हई, पूनः पूष्पक सार्थवाह आसक्त हआ. पनः वेश्यासे और पुन : कामासक्त राजासे पीड़ित किये जानेपर भो जिसने अपने निर्मल शीलका पालन किया ॥२९८॥ इस प्रकार यह निःकांक्षित अंगमें अनन्तमतोकी कथा है। अब सम्यग्दर्शनके तीसरे निर्विचिकित्सा अंगका वर्णन किया जाता है-कहा भी है-स्वभावसे अपवित्र किन्तु रत्नत्रय धारण करनेसे पवित्र ऐसे साधुजनोंके मलिन शरीरमें ग्लानि नहीं करना, पर उनके गुणों में प्रीति करना निविचिकित्सा अंग माना गया है ।।२९९।। पूर्वोपार्जित सघन कर्मोके उदयके वशसे प्राप्त हुए रोगोंसे कलंकित मुनिको देखकर जिसका मन ग्लानिको प्राप्त होता है वह मनुष्य समस्त आपत्तियोंका आस्पद होता है ॥३००॥ जैन साधुभोंके खड़े होकर भोजन करनेसे, नग्न रहनेसे, स्नान बोर आचमन नहीं करनेसे मिथ्यादृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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