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________________ २८९ श्रावकाचार-सारोवार विधातुं सरसं भोज्यं चतुष्कं दातुमङ्गणे । श्रेष्ठिनो भार्ययाहूता क्षान्तिकाम्पर्णवत्तिनी ॥२८० ततः पीयूषसर्वस्वभिदेलिमरसोदयम् । कृत्वा भोज्यं चतुष्कं च दत्वा सा वसति ययौ ॥२८१ सुरासुरनराधीशवन्धमानपदद्वयाः । अर्चयित्वा जिनेन्द्रार्चाः श्रेष्ठी गेहं समासदत् ॥२८२ चतुष्कदर्शनादेष स्मृत्वाऽनन्तमती सुताम् । पर्यक्षुलोचनः श्रेष्ठी न्यगादोद्गद्गवस्वनः ॥२८३ यया चतुष्कमापूर्ण तूर्णं नीरजलोचना । सेयमानीयतां बाला मच्चितानन्दकन्दली ॥२८४ ततस्तैः सा समानीता बाला साश्रुविलोचना । शोकसन्तप्तगात्रस्य ननाम चरणौ पितुः ॥२८५ समुत्याप्य प्रमृज्याश्र रोमाञ्चकत्रचाञ्चितः । प्रियदत्तः शुचा वान्तचिन्तां पुत्रीमवोचत ॥२८६ आबाल गलितस्फारशीलायास्ते तनूरहे । यानि वात्सल्यशून्यानि तुन्दन्त्यहानि तानि माम् ॥२८७ कथं केन हृता बाले केनानीतात्र पत्तने : इति पृष्टा सुता सर्वमुदन्तं तमबूबुधत् ॥२८८ तयोः समागमे हृष्टो जिनदेवो वणिक्पतिः । कारयामास सर्वस्यां पुर्यतुच्छ महोत्सवम् ॥२८९ तदेहि वत्से गच्छाव आवामात्मनिकेतनम् । इत्यूचिवान् समाचष्टे श्रेष्ठिनं पितरं सुता ॥२९० दृष्टं संसारवैचित्र्यमेकस्मिन्नपि जन्मनि । अतस्तात मम स्वान्तं जिनदीक्षां चिकीर्षति ॥२९१ कतावकं वपुर्वत्से कदलोगर्भकोमलम् । क्व च जैनेश्वरी दीक्षा दुःसाध्यापि मनस्विनाम् ॥२९२ प्रौढिमानमतो यावल्लभन्तेऽङ्गानि ते सुते । स्थित्वा तावन्निजागारे तपः कुरुः सुदुस्सहम् ॥२९३ इधर जिनदत्त सेठकी स्त्रीने सरस भोज्य-पदार्थ बनानेके लिए तथा आंगणमें चौक पूरनेके लिए आर्यिकाके समीप रहनेवाली उस बालाको बुलाया ॥२८०॥ तब वह अनन्तमती बाला अमृतसे भी अधिक रससे भरे हुए उत्तम भोज्य-पदार्थोंको बनाकर और आंगणमें चौक पूरकर अपने स्थानको चली गई ॥२८१।। प्रियदत्त सेठ सुर-असुर और मनुष्योंके स्वामियोंसे पूजित है चरणयुगल जिनके ऐसी जिनेन्द्र-प्रतिमाओंका पूजन करके घर आया ।।२८२।। पूरे गये चौकके दर्शनसे अपनी अनन्तमती पुत्रीका स्मरण करके अश्रुपूरित नेत्रवाला होता हुआ वह प्रियदत्त सेठ गद्गद स्वरसे बोलामेरे चित्तको आनन्द करनेवाली जिस कमलनयनी बालाने यह चौक पूरा है, उसे शीघ्र बुलाइये ॥२८३-२८४|| तब जिनदत्तके द्वारा लायी गयी अश्रु-पूरित नेत्रवाली उस बालाने शोक-सन्तप्त शरीरवाले अपने पिताके चरणोंको नमस्कार किया ।।२८५।। तब हर्षसे रोमांचित होते हुए प्रियदत्तने उसको उठाकर और आँसू पोंछकर शोकसे वमन की है चिन्ताको जिसने ऐसी अपनी पुत्रीसे वोला ॥२८६।। हे प्रिय पुत्रि, बाल्यकालसे उत्तम शीलको पालनेवाली पुत्रीके वात्सल्यसे शून्य मेरे जितने दिन व्यतीत हुए हैं, वे मुझे भारी पीड़ा दे रहे हैं ॥२८७।। हे बाले, तुझे किसने हरा, और किसके द्वारा तू इस नगरमें लायी गयो ? इस प्रकार प्रियदत्तके द्वारा पूछे जानेपर उस बालाने सारा वृत्तांत कह सुनाया ॥२८८।। __ उन पिता-पुत्रीके समागमसे हर्षित हुए जिनदत्त सेठने सारी नगरीमें भारी महोत्सव कराया ॥२८९।। तदनन्तर प्रियदत्त सेठने कहा-हे बाले, आओ, अपन दोनों अपने घरको चलें। यह सुनकर पुत्रीने अपने पिता प्रियदत्त सेठसे कहा-इस एक ही जन्ममें मैंने संसारकी विचित्रताको देख लिया है, अतः हे तात, मेरा चित्त अब जिनदीक्षाको लेना चाहता है ।।२९०-२९१।। यह सुनकर प्रियदत्त बोला-हे वत्से, कहाँ तो तेरा यह केलेके गर्भ (मध्यभाग) से भी अतिकोमल शरीर, और कहीं बड़े-बड़े मनस्वी जनोंको भी दुःसाध्य यह जैनेश्वरी दीक्षा ? इसलिए हे सुते, जब तक ये सुकोमल अंग प्रौढताको प्राप्त नहीं हो जाते हैं, तबतक अपने ही घरमें रहकर कठिन दुःसह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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