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________________ श्रावकाचार-संग्रह अथ प्रातबंहिभूमि भव्यसेनस्य गच्छतः । पृष्ठेऽसौ कुण्डिका हस्ते गृहीत्वा क्षुल्लकोऽगमत् ॥३५९ सर्वतः प्रस्फुरबालतणप्रचयनिर्भरम् । मायया वसुधाचक्रं क्षुल्लकोऽयमदीहशत् ॥३६० एत एकेन्द्रिया जीवाः कथिताः श्रीजिनागमे । इत्युक्त्वा केवलं तेषामुपरिष्टाद व्रती गतः ॥३६१ धर्ममार्गोपदेष्टारः कियन्तः सन्ति नो भुवि । वितन्वते स्वयं ये तु विरलास्ते महीतले॥३६२ प्रकाशयति यो धर्म केवलं न स्वयं पुनः । वितनोति जनस्तस्य नैरर्थक्यं समश्नुते ॥३६३ ततः शौचक्षणे ब्रह्मनिष्ठोऽसौ क्षुल्लकः खगः । कुण्डिकास्थं जलं सर्वं शोषयामास मायया ॥३६४ उवाच स जलं स्वामिन् कुण्डिकायां न विद्यते । अतः स्वच्छ सरस्थस्मिन् शौचं कुरुं गुरो मृदा ॥३६५ एवमस्तु भणित्वेति शौचं चक्रे महाव्रती। किं वा न कुरुतेऽकृत्यं मिथ्यात्वविषमोहितः ॥३६६ अभव्यस्त्यक्तवस्त्रोऽपि नाकृति मुञ्चते मुनिः । कि वा दृष्टः क्वचित्सर्पश्च्युतक्ष्वेडोऽपि निविषः ॥३६७ पठन्नपि वचो जैनमकृत्यं कुरुते कुधीः । किमुद्गिलति पीयूषं सो दुग्धं पिबन्नपि ॥३६८ गृहस्थोऽपि सदाचाररत' स्यान्मुक्तिभाजनम् । महात्मापि दुराचारनिष्ठो दुर्गतिभाजनम् ॥३६९ तैस्तैः स्वैरं दुराचारैरुदारभव्यसेनकम् । मियादृष्टि स सद-दृष्टिरज्ञासोन्जिनसूत्रवित् ॥३७० ततोऽसौ भव्यसेनाख्यं निराकृत्य सुतत्ववित् । अभव्यसेनस्तस्येति नाम चक्रे क्रियानुगम् ॥३७१ __ अथानन्तर दूसरे दिन प्रातःकाल जब भव्यसेन (शौचके लिए ) बहिभूमिको जाने लगा, तब वह क्षुल्लक उनके पीछे कमण्डलुको हाथमें लेकर चला ॥३५९॥ तब उस क्षुल्लकने विद्याकी मायासे सारे वसूधाचक्रको उगते हए बालतण-सम्हसे व्याप्त करके दिखाया ॥३६०॥ तब वह भव्यसेन श्री जिनागममें ये एकेन्द्रिय जोव कहे गये हैं केवल इतना कहकर उनके ऊपरसे चला गया ॥३६१।। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस संसारमें धर्म-मार्गके उपदेश देनेवाले कितने लोग नहीं हैं ? अर्थात् बहुत हैं। किन्तु जो स्वयं वैसा आचरण करते हैं, वे लोग इस महीतल पर विरले ही हैं ॥३६२।। जो मनुष्य केवल दूसरोंके लिए धर्मको प्रकाशित करता है, किन्तु स्वयं आचरण नहीं करता, उसका वह उपदेश व्यर्थताको प्राप्त होता है ।।३६३।। तत्पश्चात् शौच करते समय ब्रह्मनिष्ठ क्षुल्लक विद्याधरने अपनी मायासे कमण्डलु में रखे हुए सारे जलको सुखा दिया ॥३६४।। पुनः वह बोला-हे स्वामिन्, कमण्डलुमें तो जल नहीं है। इस लिए हे गुरो, इस स्वच्छ सरोवर में जल-मिट्टीसे शौच कर लीजिए ॥३६५।। ऐसा ही ठीक है, ऐसा कहकर उस नामधारी महाव्रतीने सरोवरके जलसे शौच-शुद्धि कर ली । अथवा मिथ्यात्व-विषसे मोहित मनुष्य क्या कोन सा अकृत्य नहीं करता है। सभी अकृत्य करता है ॥३६६।। स्व-त्यागी अभव्य मुनि भी अपनी आकृति (प्रकृति) को नहीं छोड़ता है। क्या कहींपर विषको त्यागकर निविष हुआ सर्प देखा गया है। नहीं देखा गया ॥३६७।। जैन वचनको पढ़ता हुआ भी दुवुद्धि मनुष्य अकृत्यको करता है । दूध पोता हुआ भी सर्प क्या कभी अमतको उगल सकता है। कभी नहीं ॥३६८॥ सदाचारमें तत्पर गृहस्थ भी मुक्तिका पात्र होता है, किन्तु दुराचारमें सलग्न महाव्रती महात्मा भी दुर्गतिका पात्र होता है ॥३६९।। तब उस सम्यग्दृष्टि और जिनसूत्रके जानकार क्षुल्लकने उक्त उन-उन बड़े भारी स्वच्छन्द दुराचरणोंसे भव्यसेनको मिथ्यादृष्टि जान लिया ॥३७०॥ तब उस तत्त्ववेत्ता क्षुल्लकने 'भव्यसेन' इस नामका निराकरण करके क्रियाके अनुसार 'अभव्यसेन' ऐसा उसका नाम रख दिया ॥३७१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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