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________________ २८४ श्रावकाचार-संग्रह तस्मिन्नेव भणे रात्रौ चोरमञ्जनसंज्ञितम् । उवाच परया प्रीत्या गणिकाऽखनसुन्दरी ॥२१७ प्रजापालस्य या राज्ञी विशुद्धा कनकामिधा । तत्कण्ठस्थं महोदारं हारमानीय दीयताम् ॥२१८ अन्यथा जीवितव्यस्य क्षतिः स्यान्नात्र संशयः । इष्टार्थालाभतः को वा ना भवेन्मृत्युगोचरः ॥२१९ ततो गत्वा प्रजापालपत्न्या हारं मनोहरम् । गृहीत्वा तस्करो यावद्भिया संचरतेऽध्वना ॥२२० तावज्जागरिभिर्दौरङ्गरक्षनिरीक्षितः । ध्रियमाणः परित्यक्त्वा हारं शवपदं गतः ॥२२१ तस्मिन् वटतले विद्यां साधयन्तं नरं परम् । आलोक्याऽऽपृच्छय सम्बन्धं तस्मान्मन्त्रमुदाऽग्रहीत्।।२२२ शिक्यारूढः स इत्युक्त्वा प्रमाणं श्रेष्ठिनो वचः । चिच्छेद सकलान् पादानेकवारमुदारधीः ॥२२३ यावन्न गतशङ्कोऽयं शास्त्रेषु पतति ध्रुवम् । आदेशं यच्छ यच्छेति विद्या तावद्वचोऽवदत् ॥२२४ यत्र मेरो जिनेन्द्राणां प्रतिमाः प्रस्फुरत्प्रभाः । पूजयंस्तिष्ठति श्रेष्ठी तत्र मां नय सोऽवदत् ॥२२५ तया नीतो विनीतोऽसौ नत्वा त्वेवं व्यजिज्ञपत् । आकाशगामिनी विद्या सिद्धा मे ते प्रसादतः ॥२२६ ततः प्रसीद मे मन्त्रं देहि मुक्तिप्रदं विभो। शिवीभवामि येनाशु हत्वा दुष्कर्मसन्ततिम् ॥ २२७ विज्ञाय ज्ञायचित्तस्य काललब्धिं वणिक्पतिः । निनाय सत्वरं चौरं चारणश्रमणान्तिकम् ॥२२८ आवाय यतिनो दीक्षामञ्जनः स निरञ्जनः । क्रमाकैवल्यमुत्पाद्य जग्मिवान्मोक्षमक्षयम् ॥२२९ उसी ही समय रात्रिमें अंजन सुन्दरी वेश्याने अपने पास आते हए अंजन नामक चोरसे परम प्रीति-पूर्वक कहा-प्रजापाल राजाकी कनकमती नामकी जो परम सुन्दरी विशुद्ध बुद्धिवाली रानी है उसके गले में जो महामूल्यवान् विशाल उदार हार है, उसे लाकरके मुझे दो॥२१७-२१८।। अन्यथा मेरे जीवनका विनाश हो जायगा, इसमें संशय नहीं है। अथवा इष्ट अर्थका लाभ न होनेसे कौन मृत्युका विषय नहीं हो जाता ॥२१९।। यह सुनकर वह अंजनचोर वहीं गया, और प्रजापालकी रानीका मनोहर हार लेकर 'कोई देख न लेवे' इस भयसे मार्गमें भागकर जाने लगा, तभी जागने वाले कुशल अंगरक्षकोंने देख लिया । वे जैसे ही उसे पकड़नेके लिए दौड़े कि अपना बचना असंभव देख वह हारको मार्गमें छोड़कर (भागता हुआ) श्मशानमें पहुंचा ॥२२०-२२२।। वहाँपर उस वट वृक्षके नीचे विद्याको सिद्ध करते हुए मनुष्यको देखकर उसके सीकेपर चढ़ने-उतरनेके सम्बन्धमें पूछा और उससे उसने उस मंत्रको सहर्ष ग्रहण कर लिया ॥२२२॥ 'सेठके वचन प्रमाण है' ऐसा कहकर वह सीकेपर चढ़ गया और उस उदार दृढ़ बुद्धिवाले चोरने समस्त पादों (तिनकोंको) एक बार ही शस्त्रसे काट दिया ॥२२३॥ शंका-रहित यह चोर सीकसे नीचे गिरता हुआ जब तक शस्त्रोंपर नहीं गिरा कि तभी आकाशगामिनी विद्याने उसे अधरमें ही झेल लिया और उससे यह वचन बोली कि मुझे आज्ञा दो, आज्ञा दो कि मैं क्या सेवा करूँ॥२२४।। तब उस अंजन चोरने कहा-जहां सुमेरु पर्वतपर जिनराजोंकी स्फुरायमान प्रभावालो प्रतिमाएं हैं और जहाँपर सेठ पूजा करता हुआ बैठा है, वहाँ मुझे ले चलो ॥२२५।। उस आकाशगामिनी विद्याके द्वारा वह वहाँ ले जाया गया । उस विनीत अंजन चोरने सेठको नमस्कार कर इस प्रकार कहा-हे महाभाग, आपके प्रसादसे मुझे आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई है ॥२२६॥ इसलिए हे प्रभो, मुझपर प्रसन्न होओ और मुक्तिको देने वाला मंत्र मुझे प्रदान करो। जिजसे कि मैं दुष्कर्मोकी सन्ततिको शीघ्र नाश करके शिवको प्राप्त होऊं ॥२२७॥ सेठ उसकी प्रार्थना सुनकर और उसकी प्राप्त हुई काललब्धिको जानकर वह शोघ्र ही चारण ऋद्धिधारी श्रमणके समीप ले गया ॥२२८॥ उन महाश्रमण से जिन दीक्षाको लेकर, तपश्चरण करते हुए क्रमसे कैवल्यको उत्पन्न कर और अक्षय मोक्षको प्राप्तकर वह अंजन सदाके लिए निरंजन हो गया ॥२२९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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