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________________ श्रावकाचार-सारोद्धार इति निःशङ्कितकथा ॥१ तपः सुदुस्सहं तन्वन् दानं वा स्वर्गसम्भवम् । सुखं नाकाङ्क्षति त्रेधा यः स निःकाङ्गिताग्रणीः ॥१३० सुखे वैषयिकेसान्ते तपादानं वितन्वतः । नरस्य स्पृहयालुत्वं यत्सा काङ्क्षा बुधैर्मता ॥२३१ इह भवे विभवादिकमक्षयं परभवे च सुरासुरनाथताम् । अभिलषेन च चक्रिपदं सुधीः समधिगम्य सुदर्शनमद्भुतम् ॥२३२ २८५ उक्तं च हस्ते चिन्तामणिर्यस्य गृहे यस्य सुरद्रुमः । कामधेनुर्धने यस्य तस्य कः प्रार्थनाक्रमः ॥२३३ इन्द्रत्वं च फणीन्द्रत्वं नरेन्द्रत्वं किलाढकैः । विक्रीणीते स सम्यक्त्वादाङ्क्षेद्योऽक्षजं सुखम् ॥ २३४ यः कामितसुखे तन्वन् वैमुख्यं दर्शनं त्रिधा । पालयत्यखिला लक्ष्म्यो वृणुते तं स्वयंवराः ॥ २३५ उक्तं च हा सात्पितुश्च तुर्थेऽस्मिन् व्रतेऽनन्तमती स्थिता । कृत्वा तपश्च निःकाक्षा कल्पं द्वादशमाविशत् ॥२३६ अस्य कथा अङ्गदेशाभिर्वातन्यां चम्पायां प्रभुरद्भुतः । वर्धमानगुणग्रामो भूपोऽभूद्वसुवर्धनः ॥ २३७ प्रियदत्तोऽभवच्छ्रेष्ठी सोऽत्र सत्त्वप्रियङ्करः । भाग्य सौभाग्यसम्पन्ना यद्भार्याऽङ्गवती सती ॥२३८ यह निःशङ्कित अङ्गकी कथा है जो अति दुःसह तपको करता हुआ और स्वर्गको देनेवाला दान देता हुआ भी मन वचन कायसे संसारिक सुखकी आकांक्षा नहीं करता है, वह नि:कांक्षित पुरुषों में अग्रणी कहलाता है || २३०|| तप, दान आदिको करते हुए मनुष्यकी जो अन्त करके सहित भी इस विषय जनित सुखमें अभिलाषा होती है, उसे ही ज्ञानियोंने कांक्षा कहा है || २३१|| इस अद्भुत सम्यग्दर्शन को पाकरके सद् बुद्धि मनुष्यको चाहिए कि वह धर्म सेवनके फलस्वरूप इस भवमें धन-वैभव आदि मेरे अक्षय रहें, इस प्रकारकी, तथा परभव में सुरेन्द्र-असुरेन्द्र पदकी और चक्रवर्ती आदिके उत्कृष्ट पदकी कभी अभिलाषा न करे ॥ २३२ ॥ 1 कहा भी है- जिसके साथ में चिन्तामणि रत्न है, जिसके घर में कल्पवृक्ष है और जिसके गोधन में कामधेनु विद्यमान है, उसका परसे याचना करनेका क्रम कैसा । भावार्थ - जिसके हृदयमें चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनुसे भी उत्कृष्ट सम्यक्त्वरत्न प्रकाशमान है, उसे किसीसे कुछ भी याचना करने की आवश्यकता नहीं है । उसे तो सांसारिक सुख स्वयमेव प्राप्त होंगे || २३३|| जो मनुष्य सम्यक्त्वरत्न पाकरके उससे इन्द्रपना, धरणेन्द्रपना या नरेन्द्रपनाकी, या किसी भी प्रकार के इन्द्रिय-जनित सुखको आकांक्षा करता है, समझो वह उस रत्नको आढक प्रमाण ( अढ़या भर) अन्नके बदलेमें बेचता है || २३४|| जो अभिलषित सुखमें विमुखता रखता हुआ सम्यग्दर्शनका त्रियोगसे पालन करता है, उसे संसारकी सभी प्रकारकी लक्ष्मियाँ स्वयं ही वरण करती है || २३५|| पिता के हास्यसे लिये गये इस चतुर्थं ब्रह्मचर्यव्रत में अनन्तमती स्थिर रही। अन्त में तप धारण करके सांसारिक भागोंसे आकांक्षा-रहित होती हुई वह मरण करके बारहवें स्वर्ग में गई ॥२३६॥ Jain Education International इस नि:क्षित अंग प्रसिद्ध होनेवालेकी कथा इस प्रकार है-अंगदेशके भीतर वर्तमान चम्पानगरी में अद्भुत सामर्थ्यं वाला और वर्धमान गुणसमूहका धारक वसुवर्धन नामक राजा था ||२३७|| उस नगरीमें प्राणियोंके लिए प्रिय कार्य करनेवाला प्रियदत्त नामका सेठ रहता था। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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