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________________ श्रावकाचार-सारोद्धार ९८३ सारपञ्चनमस्कारपदैः सेत्स्यति निश्चितम् । अन्यस्यापि तवादेशाद्विद्या चाकाशगामिनी ॥२०२ इत्युक्त्वा तं स्तवैः स्तुत्वा नत्वा च गुरुभक्तितः । जगाम त्रिदिवं देवः समं मित्रेण सत्वरम् ॥२०३ स्वच्छन्दोल्लसदानन्दमेदुरो निजमन्दिरम् | आप पञ्चनमस्कारस्मरणप्रवणो वणिक् ॥ २०४ प्रत्यहं प्रातरुत्थाय भवता कुत्र गम्यते । अथापृच्छद्वणिक्नाथं सोमदत्तः पटुर्वदुः ॥२०५ धीर मेरो जिनेन्द्राणां प्रतिमा या अकृत्रिमाः । अचितुं ताः स्फुरद्रूपा गच्छामीति निवेदितम् ॥२०६ यच्छ स्वच्छमते मह्यमुपदेशं यतो मम । चित्तेऽस्ति मेरुचैत्यानां वासना पर्युपासने ॥२०७ ततः पञ्चपदं मन्त्रं तस्मै साधुर्व्यशिश्रणत् । परोपकारवै मुख्यं न हि सन्तो वितन्वते ॥२०८ उपदेशं समासाद्य ज्ञात्वा च सकलं विधिम् । गत्वा श्मशानमद्राक्षीत्सच्छायं वटपादपम् ॥ २०९ अधस्तादूर्ध्ववक्त्राणि शस्त्राण्यारोप्य सर्वतः । दर्भस्याष्टोत्तरे: शिक्यं शतपादैरलङ्कृतम् ॥ २१४ दिने कृष्णचतुर्दश्यां बबन्ध दृढबन्धनैः । पूर्वदिग्भागवर्तिन्यां शाखायां वटशाखिनः ॥ २११ पष्ठोपवासकृत्पूर्वं पूजां कृत्वातिभक्तितः । उच्चारयन्मुखे मन्त्र शिक्यमध्ये प्रविष्टवान् ॥२१२ एकैकं छिन्दता पादं मन्त्रं च पठता मुखे । दृष्ट्वा तिग्मानि शस्त्राणि चित्ते तेनेति चिन्तितम् ॥ २१३ देवाद्वणिक्पतेर्वाक्यं यद्यसत्यत्वमाश्रयेत् । शस्त्रेषु पततो नूनं तदा मे मरणं भवेत् ॥ २१४ इति निश्चयमासाद्य चटनोत्तरणं कुधीः । करोति नाथवा सिद्धिरनिश्चयवतां नृणाम् ॥२१५ येषामाप्तप्रणीतेऽपि युक्तियुक्ते न निश्चयः । संशयध्वस्तबुद्धीनां तेषां सिद्धिः कुतस्तनी ॥२१६ गामिनी विद्या अन्य पुरुषको भी निश्चितरूपसे सिद्ध होगी । ऐसा कहकर और स्तोत्रोंसे उसकी स्तुति कर और गुरु भक्ति से नमस्कार करके वह देव अपने मित्रके साथ स्वर्ग चला गया ॥ २०२ - २०३॥ तत्पश्र्चात् स्वच्छन्द आनन्दके उल्लाससे हर्षित होता हुआ और पंच नमस्कार मंत्रके स्मरणमें कुशल वह सेठ अपने मन्दिरको प्राप्त हुआ || २०४ || किसी दिन सोमदत्त नामके एक कुशल बालकने सेठसे पूछा- आप प्रतिदिन प्रातःकाल उठ करके कहाँ जाते हैं ||२०५ || सेठने कहा है, घीर सुमेरु पर्वतपर जो जिनराजोंकी स्फुरायमान रूपवाली अकृमित्र प्रतिमाएँ हैं, उनकी पूजा करनेके लिए जाता हूँ || २०६ || बालकने कहा - हे निर्मल बुद्धिशालिन्, मुझे भी उस मंत्रका उपदेश दो, क्योंकि मेरे भी चित्तमें मेरुकी प्रतिमाओंकी उपासना करनेकी भावना है || २०७|| तब उस सेठने उसे पंचपदरूप नमस्कार मंत्र को दिया । क्योंकि सन्त पुरुष परोपकारसे पराङ्मुख नहीं होते हैं || २०८|| सेठसे उपदेश पाकर और आकाशगामिनी विद्याके सिद्ध करनेकी सर्व विधिको जानकर वह श्मशान गया और वहाँपर एक सघन छाया वाला वट वृक्ष देखा || २०९ | | कृष्णा चतुर्दशीके दिन उस वट वृक्षके नीचे जिनके मुख (अग्रभाग) ऊपरकी ओर हैं ऐसे शस्त्रोंको भूमिमें सर्व ओर गाड़ करके डाभके एक सौ आठ तिनकोंसे अलंकृत सींका बनाकर और उसे वट वृक्षकी पूर्व दिशावाली डालीमें दृढ़ बन्धनोंसे बाँध दिया ॥२१०-२११ ॥ सर्व प्रथम षष्ठोपवास ( वेला) की प्रतिज्ञाकर और फिर अति भक्तिसे पंचपरमेष्ठीकी पूजा करके मुख से मंत्र का उच्चारण करता हुआ वह सींकेके भीतर प्रविष्ट हुआ || २१२ ॥ मुखसे मंत्र को पढ़ते हुए और सींकेके एक एक तृणरूप पादको काटते हुए नीचे गड़े तीक्ष्ण शस्त्रोंको देखकर वह विचारने लगा-यदि देव वश सेठके वाक्य असत्य सिद्ध हुए तो शस्त्रोंपर गिरते हुए मेरा मरण निश्चयसे हो जायगा ।। २१३ - २१४ || ऐसा विचारकर वह कुबुद्धि उस सींकेपर चढ़ने और उतरने लगा । अथवा अनिश्चयवाले मनुष्यों को कोई सिद्धि प्राप्त नहीं होती है || २१५|| जिनके हृदय में आप्त-प्रणीत और युक्ति युक्त तत्त्वमें भी निश्चय नहीं, और संशय से जिनकी बुद्धि विध्वस्त हो गई है, ऐसे पुरुषों को सिद्धि कहाँसे हो सकती है ॥ २१६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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