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________________ २८२ श्रावकाचार-संग्रह उवाच त्रिदशः श्रष्टिनावां सुरपुराधिपो । नाम्नाऽमितगतिश्चायमहं विद्युत्प्रभस्तथा ॥१८८ अस्मिन्नपारे संसारे सारं धर्म जिनोदितम् । मुक्त्वाऽन्यो भवभोरूणां न नृणामपवर्गदः ॥१८९ एकदेति प्रशंसन्तमुक्तवानमितप्रभः । असत्यदर्शनस्यैव मास्म कार्षीः स्तवं वृथा ॥१९०। वेवमार्गोद्धयो धर्मो भुक्तिमुक्तिप्रदो नृणाम् । गुणौघगुरवो नित्यं तापसा गुरवो मताः ॥१९१ मामुवाच पुनर्देवः किमत्र बहुजल्पितैः । परीक्षासु क्षमो योऽत्र गुरुर्धर्मः स शस्यते ॥१९२ ततो धर्मपरीक्षार्थ भ्रमद्भयां धरणीतले । चालितस्तापसो मायो यामदग्निस्तपोधनः ॥१९३ मागताभ्यामिह त्वं च कायोत्सर्गकतत्परः । दृष्टो जिनमताम्भोधिपारीणधिषणो निशि ॥१९४ मामुवाच ततो जैनसुरः सम्यक्त्वभासुरः । पश्यैनं श्रावकं चारुश्रावकाचारकोविदम् ॥१९५ तिष्ठन्तु दूरतो भूरि गुणाधारा यतीश्वराः । शक्तिश्चेच्चालय ध्यानादेनं गृहति सखे ॥१९६ ततः परं शताविघ्नाश्चक्रिरे मायया मया। परं ते मेरुधीरस्य न चित्तं चलितं क्वचित् ॥१९७ देवं जिनं वयायुक्तं धर्म नीरागतामिदम् । गुरुं ये नात्र मन्यन्ते ते देवेनैव वञ्चिताः ॥१९८ निबिडं या कृता पोडा मयाऽज्ञानतया तव । क्षमितव्यं त्वया दुष्टं मामकं तद्विचेष्टितम् ॥१९९ स्वमगाघो गुणाम्भोधिस्त्वमकारणबान्धवः । सम्यक्त्वरत्नसम्प्राप्तिर्जाता मे ते प्रसादतः ॥२०० तस्मै सत्पुण्यसम्भारभाविताय यतात्मने । आकाशगामिनों विद्यां विततार सुरेश्वरः ॥२०१ है? मुझे आदेश दीजिये कि मैं क्या करूं ? मैं आपका किंकर हूँ ॥१८७॥ यह सुनकर देव बोला, हे श्रेष्ठिन्, हम दोनों सुर-पुरके स्वामी देव हैं। इसका नाम अमितगति है, और मैं विद्यत्प्रभ हूँ ॥१८८॥ इस अपार संसारमें जिनोपदिष्ट धर्मको छोड़कर अन्य कोई धर्म भव-भयभीरु जनोंको मोक्षका देने वाला नहीं है इस प्रकारसे जैनधर्मको प्रशंसा करते हुए मुझसे यह अमित प्रभाका धारक विद्युत्प्रभ बोला-असत्य दर्शन वाले जैनधर्मकी व्यर्थ प्रशंसा मत करो ॥१८९-१९०।। वेदोंके द्वारा प्रकट हा धर्म ही मनुष्योंको मुक्तिका देनेवाला है और गुण-समूहसे नित्य गौरवशाली तापस ही गुरु माने गये हैं ॥१९१॥ पुनः वह देव मुझसे बोला-इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ है? जो परीक्षामें समर्थ सिद्ध हो, वही धर्म प्रशंसनीय माना जायगा ॥१८२।। तब धर्मकी परीक्षा करनेके लिए इस भूतलपर हम दोनों परिभ्रमण करने लगे और मायाचारी यामदग्नि तपोधनवाला तापस हमारे द्वारा चला दिया गया ॥१९३॥ फिर वहाँसे घूमते हम दोनोंको रात्रिके समय कार्योत्सर्गमें एकाग्रतासे तत्पर और जिनमतरूप सागरमें कुशल बुद्धिवाले तुम दिखाई दिये ।।१९४|| तब सम्यक्त्व रत्नसे प्रकाशमान यह जैन देव मुझसे बोला--सुन्दर श्रावक धर्मके आचरण करने में कुशल विद्वान् इस श्रावकको देखो ॥१९५॥ अनेक गुणोंके आधार जैन यतीश्वर तो दूर ही रहें, यदि तुममें शक्ति हो तो इस गृहस्थ मुनिको हे सखे, तुम ध्यानसे चलायमान करो ।।१९६।। यह सुनकर मैने अपनी मायासे रात्रिमें सैकड़ों विघ्न किये। परन्तु सुमेरुके समान स्थिर तुम्हारा चित्त कुछ भी चलायमान नहीं हुआ ॥१९७॥ जो लोग वीतरागी जिन देवको, दयायुक्त धर्मको और वीतरागताको प्राप्त गुरुको नहीं मानते हैं, वे लोग इस संसारमें देवसे ही ठगाये गये हैं ॥१९८॥ मैंने अज्ञानतासे तुम्हारे ऊपर सघन उपद्रव करके दुष्ट अपराध किया है, सो मेरा वह सभी दुष्ट चेष्टा वाला अपराध तुम्हें क्षमा करना चाहिए ॥१९९|| हे श्रेष्ठिन्, तुम गुणोंके अगाध समुद्र हो, अकारण बान्धव हो। तुम्हारे प्रसादसे आज मुझे सम्यक्त्वरूप रत्नकी प्राप्ति हुई है ॥२००। इस प्रकार स्तुति करके उस सुरेश्वरने सत्पुण्यके भारसे भावित आत्मावाले उस सेठके लिए आकाशगामिनी विद्या प्रदान की ॥२०१॥ तुम्हारे आदेशसे सारभूत पंच नमस्कार मंत्रके पदों-द्वारा यह आकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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