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________________ श्रावकाधार-सारोवार २८१ पूर्वापरविरोधादिवजितेऽपि हि वस्तुनि । यस्य दोलायितं चित्तं स कथं न दुराशयः ॥१७६ जिन एव भवेद्देवस्तत्त्वं तेनोक्तमेव च । यस्येति निश्चयः स स्यान्निःशङ्कितशिरोमणिः ॥१७७ उक्त चइदमेवेदृशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकम्पाऽऽयसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥१७८ हृषीकराक्षसाक्रान्तोऽप्यन्तरिक्षगति क्षणात् । निःशतितया प्राप तस्करोऽञ्जनसंशितः ॥१७९ अस्य कथाउद्दामारामसङ्कीर्णो देशः स मगधामिधः । अलञ्चकार यं राजगृहं नाम पुरं परम् ॥१८० उदारश्रावकाचारविचारणपटिष्टधीः । गुणश्रेष्ठोऽभवच्छष्ठो जिनदत्तामिधः सुधीः ॥१८१ सोपवासश्चतुर्दश्यामन्यदा स निशागमे । जगाम विलसद्धामश्मशानं भरिभीतिवम् ॥१८२ संसारभोगनिविण्णः सम्यक्त्वव्रतभूषितः । कायोत्सर्गविधि चक्र ध्यायन् स परमं महः ॥१८३ कायकान्तिहतध्वान्तौ महान्तौ त्रिदशेश्वरौ। भ्रमन्तौ स्वेच्छया दत्तध्यानमेनमपश्यताम् ॥१८४ प्रसरत्वरतमस्तोमजित्वरैः किरणोत्करैः । अथ प्रकाशयन् लोकमुदियाय वरद्युतिः ॥१८५ वणिक्पतिरपि प्रातः प्रतिज्ञामात्मनोऽत्यजन् । अपश्यच्च पुरः स्वैरं रम्याकारधरामरौ ॥१८६ उवाच कौ युवां कस्मादागतौ कि प्रयोजनम् । दीयतां वा ममावेशः किङ्करः किं करोम्यहम् ॥१८७ है ।।१७५।। वस्तु-स्वरूपके पूर्वापर विरोध आदि दोषोंसे रहित होनेपर भी जिसका चित्त उसे स्वीकार करने में दोलायित रहता है, अर्थात् 'यह ऐसा है, कि नहीं है' इस प्रकारसे शंकित रहता है, वह दुराशयवाला कैसे नहीं है ।।१७६।। जिनदेव ही सच्चेदेव हैं और उनके द्वारा कहा गया तत्त्व ही सच्चा तत्त्व है, जिसके ऐसा दृढ़ निश्चय होता है, वह मनुष्य निःशंकितोंमें शिरोमणि है ॥१७७॥ कहा भी है-तत्त्व का स्वरूप जैसा जिनराजाने कहा है, वह यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है और न वह अन्य प्रकारसे हो सकता है, इस प्रकार तलवारको धारपर चढ़े हुए पानीके सदृश सन्मार्गमें संशय-रहित श्रद्धान होना सो निःशंकित अंग है ।।१७८॥ पांचों इन्द्रियोंके विषयरूप राक्षसोंसे व्याप्त भी अंजन नामका चोर निःशंकित गुणके द्वारा क्षण भरमें आकाशगामिनी विद्याको प्राप्त हो गया ॥१७९।। इसकी कथा इस प्रकार है-इसी भारत क्षेत्रमें विशाल उद्यानोंसे व्याप्त मगध नामक देश है, जिसमें राजगृह नामक श्रेष्ठ नगर अलंकृत था ॥१८०॥ वहाँपर उदार श्रावकाचारके विचारमें कुशल बुद्धिवाला, गुणोंमें श्रेष्ठ और सद बुद्धिवाला एक जिनदत्त नामका सेठ रहता था ॥१८१।। किसी एक समय चतुर्दशीके दिन उपवास धारण करके रात्रिके होनेपर भारी भयको देने वाले और जहाँ मृतक जलते थे, ऐसे श्मशानमें ध्यान करनेके लिए गया ॥१८२॥ वह सेठ सांसारिक भोगोंसे विरक्त और सम्यक्त्व एवं व्रतसे विभूषित था । श्मशानमें जाकर परम ज्योतिका ध्यान करता हुआ वह कायोत्सर्गमें स्थित हो गया ॥१८३।। वहाँपर परिभ्रमण करते हुए और अपने शरीरकी कान्तिसे अन्धकारका विनाश करते हुए दो बड़े देव आये और उन्होंने ध्यानमें मग्न इसे देखा ॥१८४।। इतने में ही फैलते हुए अन्धकार समूहको जीतने वाली किरणोंके समूहसे लोकको प्रकाशित करता हआ उत्कृष्ट कान्तिका धारक सूर्य उदयको प्राप्त हो गया ॥१८५॥ उस वणिक पति सेठने भी प्रभात हुआ देखकर अपने कायोत्सर्गकी प्रतिज्ञाको पूरा किया और सामने उपस्थित स्वेच्छानुसार रम्य आकारोंके धारक उन दोनों देवोंको देखा ॥१८६।। सेठने पूछा---आप दोनों कोन है, कहाँसे आये हैं और आपका क्या प्रयोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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