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________________ २८० 'श्रावकाचार-संग्रह प्रकीर्णकभेदविस्तीर्णश्रुतार्थनप्रस्तारो विस्तारः ७। प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः ८ । त्रिविधस्याऽगमस्य नि शेषतोऽन्यतमदेशावगाहावलोढमवगाढम् ९। अवधि-मनःपर्यय-केवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् १० । अन्ये भेदाः परमागमाज्ज्ञातव्याः । कृपाप्रशमसंवेगनिर्वेदास्तिक्यलक्षणैः । सम्यक्त्वं भूष्यते व्यक्तममीभिः पञ्चभिर्गुणैः ॥१६८ शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पञ्चामो सम्यक्त्वस्यैव दूषकाः॥१६९ उक्ता प्रशमाद्याःयद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समस्तव्रतभूषणाम् ॥१७० शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रभवाद्भयात् । स्वप्नेन्द्रजालसङ्कल्पाद्धीतिः संवेग उच्यते ॥१७१ सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः । धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥१७२ आप्ते श्रुते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंस्तुतम् । आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं मुक्तियुक्तिधरे नरे ॥१७३ उक्तं चनाङ्गहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥१७४ अतोऽङ्गान्येव पालनीयानि । तद्यथाअनेकान्तात्मकं वस्तुजातं यद्गदितं जिनैः । तन्नान्यथेति मन्वानो जनो निःशङ्कितो भवेत् ॥१७५ कथनसे उत्पन्न होने वाला संक्षेप सम्यक्त्व है । (६) बारह अंग और चौदह पूर्व, तथा प्रकीर्णकोंके भेदोंसे विस्तीर्ण श्रुतके अर्थके विस्तारसे होनेवाला विस्तारसम्यक्त्व है। (७) प्रवचनके विषयमें अपना निश्चय कराने में समर्थ अर्थसम्यक्त्व है । (८) अंग, पूर्व और प्रकीकर्णरूप तीनों प्रकारके श्रुतरूप आगमका निःशेषरूपसे किसी एकदेशमें अवगाहन करनेवाला अवगाढ़सम्यक्त्व है। (९) अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी पुरुषोंके आत्म-प्रत्ययसे उत्पन्न होनेवाला परमावगाढ़ सम्यक्त्व है । (१०) सम्यक्त्वके अन्य भेद परमागमसे जानना चाहिए। ___ करुणा, प्रशम, संवेग, निर्वेद और आस्तिक्य लक्षणवाले इन पांच गुणोंसे सम्यक्त्व व्यक्तरूपसे भूषित होता है ॥१६८।। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि प्रशंसा और मिथ्या दृष्टि संस्तव ये पांचों ही सम्यक्त्वको दोष लगाने वाले अतीचार हैं ॥१६९।। प्रशम आदि भावोंका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-रागादि दोषोंमें चित्तवृत्तिका जो शान्त होना, उसे प्राज्ञपुरुषोंने प्रशम भाव कहा है । यह समस्तव्रतोंका भूषण है ॥१७०।। शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक वेदनाओंसे उत्पन्न होनेवाले भयसे, तथा स्वप्न और इन्द्रजालके सदृश संसारकी कल्पना करके उससे डरना संवेग कहा जाता है ॥१७१।। सभी प्राणियोंपर चित्तका दयासे आई रहना, इसे दयालु जनोंने धर्मका मूलरूप अनुकम्पा या करुणाभाव कहा है ॥१७२।। आप्तमें, श्रुतमें, व्रतमें और तत्त्वमें चित्तको 'अस्ति'--'ये हैं ऐसे भावसे युक्त रखना इसे आस्तिक पुरुषोंने आस्तिक्यभाव कहा है। ये उक्त सर्व गुण मुक्तिकी युक्तिके धारक मनुष्यमें होते हैं ॥१७३।। और भी कहा है-आठ अंगोंमेंसे किसी एक भी अंगसे हीन सम्यग्दर्शन संसारकी परम्परा को छेदने में समर्थ नहीं होता है । जैसे कि एक भी अक्षरसे होन मंत्र विषकी वेदनाको नष्ट नहीं करता है ।।१७४॥ इसलिए भव्य जीवोंको सम्यक्त्वके सभी अंग पालन करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं'सर्व वस्तु समूह अनेकधर्मात्मक हैं,' ऐसा जो जिनराजोंने कहा है, वह वैसा ही है, अन्य प्रकारसे नहीं हो सकता, ऐसा दृढ़रूपसे माननेवाला मनुष्य निःशंकित अर्थात् शंका दोषसे रहित होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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