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________________ श्रावकाचार सालेवार पुद्गलार्धपरावर्तादूवं मोक्षं प्रपित्सुना। भव्येन लभ्यते पूर्व प्रशमाल्यं सुवर्शनम् ॥१५९ भूरिसंसारसन्तापविध्वंसनपटीयसः । आन्तमॊहत्तिकोमन्यां प्रथमस्य स्थिति विदुः ॥१६० वेदकस्य स्थितिगुरू षट्पष्टिजलराशयः । अन्तर्मुहूर्त्तमात्रान्या प्रोक्ता सम्यक्त्ववेदिभिः ॥१६१ पूर्वकोटीद्वयोपेता त्रयस्त्रिशत्पयोधयः । किश्चिन्यूना स्थितिः प्रोक्ता क्षायिकस्य परा बुधैः ॥१६२ सम्यक्त्वत्रितयं श्वभ्रे प्रथमेऽन्येषु विजिनाः । सम्यक्त्वद्वितयं मुक्त्वा क्षायिकं मुक्तिदायकम् ॥१६३ तिर्यग्मनुजसुमनसां सम्यक्त्वत्रयमुशन्ति सज्ज्ञानाः। न पुनः क्षायिकममलं सुरयुवतीनां तिरश्चीनाम् ॥१६४ सम्यक्त्वद्वितयं ज्ञेयं सरागं सुखकारणम् । वीतरागं तु पुनः सम्यक क्षायिकं भववारणम् ॥१६५ संसारभोगनिविण्णैभव्यैर्मुक्ति यियासुभिः । सम्यक्त्वंदिशधा भूयो ज्ञातव्यं परमागमात् ॥१६६ उक्तं चआज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारान्यां भयमगगाढपरमावगाढे च ॥१६७ अस्यार्थः-भगवदहत्प्रणीतागमानुज्ञा आज्ञा १। रत्नत्रयविचारसङ्गो मार्गः २। पुराणपुरुषचरितपुराणश्रवणाभिनिवेश उपदेशः ३। यतिजनाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम् ४ । सकलसमयदलसूचनाव्याजं बीजम् । आप्तश्रुतवतपदार्थसमासालापोपक्षेपः संक्षेपः ६ । द्वादशाङ्गचतुर्वशपूर्व दोनों सम्यक्त्व साधन हैं और मुक्तिको देनेवाला क्षायिकसम्यक्त्व साध्य है ॥१५८॥ जो जीव अर्धपुद्गल परावर्तन मोक्षको प्राप्त होने वाला है ऐसे भव्य पुरुषको पहिले प्रशम नामका औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है ॥१५९।। संसारके भारी (अनन्त) सन्तापके विध्वंस करने में समर्थ इस प्रथम सम्यक्त्वकी स्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र कही गई है ॥१६०॥ सम्यक्त्वके ज्ञाताओंने वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्वको उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र कही है ।।१६१।। ज्ञानियोंने क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटि वर्षसे युक्त तेतीस सागरोपम कही है ॥१६२॥ जिनदेवने प्रथम नरकमें तीनों सम्यक्त्व कहे हैं और शेष छह नरकोंमें मुक्तिदायक क्षायिकको छोड़कर शेष दोनों सम्यक्त्व कहे हैं ॥१६३॥ तियंच, मनुष्य और देवोंके सद्ज्ञानिजन तीनों ही तीनों सम्यक्त्व कहते हैं। किन्तु निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व देवियों और तिर्यंचनी स्त्रियोंके नहीं होता है ।।१६४।। औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दोनों सम्यक्त्व सराग कहे जाते हैं और सुखके कारण हैं। किन्तु क्षायिकसम्यक्त्व वीतराग कहलाता है और भव-निवारण करनेवाला है ॥१६५॥ जो भव्य पुरुष संसार और शारीरिक भोगोंसे विरक्त हैं और मुक्तिको जानेके लिए उत्सुक हैं, उन्हें परमागमसे और भी सम्यक्त्वके दश भेद जानना चाहिए॥१६६॥ ___कहा भी है-आज्ञा, मार्गसमुद्भव, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ-जनित, अवगाढ़ और परमावगाढ़ ये सम्यक्त्वके दश भेद होते हैं ॥१६७॥ इनका अर्थ इस प्रकार है-भगवान् अर्हन्त-प्रणीत आगमकी आज्ञाको दृढ़रूपसे स्वीकार करना आज्ञासम्यक्त्व है । (१) रत्नत्रयके विचारका अनुसरण करना मार्गसम्यक्त्व है । (२) पुरातन पुरुषोंके चरित, पुराण श्रवण करनेका अभिप्राय रखना उपदेश सम्यक्त्व है। (३) साधुजनोंके आचरणके निरूपणका पात्र होना सूत्रसम्यक्त्व है। (४) समस्त सिद्धान्तके विभागोंको सूचना करनेवाले पदोंसे उत्पन्न होने वाला बीजसम्यक्त्व है। (५) आप्त, श्रुत, व्रत, पदार्थके संक्षिप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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