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________________ २४ आक्काचार-संग्रह जीवाजीवावितत्त्वानां श्रद्धात वर्शनं मतम् । निश्चयात्स्वस्वरूपे वाऽवस्थानं मलवजितम् ॥१४८ पञ्चाक्षे पूर्णपर्याप्त लब्धकालादिलब्धिके । निसर्गाज्जायते भव्येऽधिगमाद्वा सुदर्शनम् ॥१४९ उक्तंचबासन्नभव्यताकर्महानिसंजित्वशुद्धपरिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्योऽप्युपदेशकादिश्च ॥१५० उद्यबोधैर्बुधैस्तस्य त्रयो भेदा बभाषिरे । प्रागेवोपशमो मिश्रः क्षायिकं च ततः परम् ॥१५१ सप्तानामुपशमतः प्रकृतीनामुपशमो हि सम्यक्त्वम् । क्षयतः क्षायिकमुक्त केवलिमूले मनुष्यस्य ॥१५२ उक्तंचपढमं पढमं नियदं पढमं विदियं च सव्वकालेषु । खाइयसम्मत्तं पुण जत्थ जिणा केवलीकाले ॥१५३ सदुपशमतो हि षण्णाभुदयक्षयतो मुनीश्वराः प्राहुः। सम्यक्त्वस्योदयतो मिश्राख्यं चारुसम्यक्त्वम्॥१५४ उक्तंचअणउदयादो छण्हं सजाइल्वेण उदयमाणाणं । सम्मत्तकम्म उदये खउवसम्म हवे सम्म॥१५५ चतुर्थतो गुणेषु स्यात्क्षायिक निखिलेष्वपि । मिश्राख्यं सप्तमं यावत्सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् ॥१५६ तुर्यादारम्य भव्यात्मवाञ्छितार्थप्रदायकम् । उपशान्तकपायान्तं सम्यक्त्वं प्रथमं मतम् ॥१५७ साध्यसाधनभेदेन द्विधा सम्यक्त्वमोरितम् । साधनं द्वितयं साध्यं क्षायिकं मुक्तिदायकम् ॥१५८ दृष्टि जानना चाहिए ॥१४७॥ जीव, अजीव आदि सात तत्त्वोंके निर्मल श्रद्धान करनेको व्यवहारसे सम्यग्दर्शन माना गया है और निश्चयसे अपने आत्म-स्वरूपमें अवस्थान करना सम्यग्दर्शन कहा गया है ।।१४८।। पंचेन्द्रिय, सर्व पर्याप्तियोंसे परिपूर्ण, और काललब्धि आदिको प्राप्त भव्य जीवमें निसर्गसे अथवा अधिगमसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ॥१४९॥ कहा भी है-निकट भव्यपना, कर्मोंकी हानि, संज्ञिपना और शुद्ध परिणाम, ये सम्यक्त्व प्राप्तिमें अन्तरंग कारण हैं और गुरुका उपदेश आदि बाह्य कारण हैं ॥१५०॥ . . उदित हुआ है सम्यक् ज्ञान जिनको ऐसे ज्ञानियोंने सम्यक्त्वके तीन भेद कहे हैं-औपशम सम्यक्त्व, मिश्र (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व ।।१५१॥ अनन्तानुबन्थी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात कार्य-प्रकृतियोंके उपशमसे ओपशमिक सम्यक्त्व होता है और केवलीके पादमूलमें उक्त सातों प्रकृतियोंके क्षयसे मनुष्य के क्षायिक सम्यक्त्व होता है ॥१५२॥ __कहा भी है-सर्व प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व नियमसे होता है, औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सर्व कालोंमें उत्पन्न होता है । किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व जहाँपर जिनदेव विराजते हैं, उसी केवलिकालमें उत्पन्न होता है ।।१५३।। प्रारम्भकी छ: प्रकृतियोंके वर्तमानमें सदुपशमसे और आगामी कालमें उदय आनेवालोंके उदयाभावी क्षयसे, तथा सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे मिश्र नामका सुन्दर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है, ऐसा मुनीश्वरोंने कहा है ।।१५४|| कहा भी है-स्वजातिरूपसे उदयमान छ: प्रकृतियोंके उदयाभावसे और सम्यक्त्वकर्मके उदयसे क्षायोपशामक सम्यक्त्व होता है ।।१५५॥ __ चौथे गुणस्थानसे लेकर ऊपरके सभी गुणस्थानोंमें क्षायिकसम्यक्त्व चौथेसे सातवें गणस्थान तक पाया जाता है । यह भी मुक्तिका कारण है ॥१५६॥ भव्य आत्माओंको मनोवांछित अर्थका देनेवाला प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व चोथे गुणस्थानसे लगाकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक माना गया है ॥१५७॥ साध्य और साधनके भेदसे सम्यक्त्व दो प्रकारका कहा गया है। इनमें प्रथमके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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