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________________ श्रावकाचार-सारोबार २७७ उक्तं च सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धचे दुःखभुजस्तदुपघाताय ॥१३८ हिंसादिकलितो मिथ्यादृष्टिभिः प्रतिपादितः। धर्मो भवेदिति प्राणी विन्दन्नपि हि पापभाक् ॥१३९ महाव्रतान्वितास्तत्त्वज्ञानाधिष्ठितमानसाः । धर्मोपदेशकाः पाणिपात्रास्ते गुरवो मताः ॥१४० पञ्चाचारविचारज्ञाः शान्ता जितपरीषहाः । त एव गुरवो ग्रन्थैर्मुक्ता बाौरिवान्तरः ॥१४१ उक्तं चक्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुःपदम् । आसनं शयनं कुप्यं भाण्डं चेति बहिर्दश ॥१४२ मिथ्यात्वदेदरागाश्च द्वषो हास्यादयस्तथा। क्रोधादयश्च विज्ञया आम्ान्तरपरिग्रहाः ॥१४३ यथेष्टभोजनाभोगलालसाः कामपीडिताः । मिथ्योपदेशदातारो न ते स्युर्गुरवः सताम् ॥१४४ संसारापारपाथोधौ ये मग्नाः सपरिग्रहाः । स्वयमेव कथं तेऽन्यतारणेऽलं भविष्णवः ॥१४५ उक्तं चसरागोऽपि हि देवश्चेद् गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहोनोऽपि धर्मः स्यात्कष्टं नष्टं हहा जगत् ॥१४६ एतेषु निश्चयो यस्य विद्यते स पुमानिह । सम्यग्दृष्टिरिति ज्ञेयो मिथ्यादृष्टिश्च संशयी ॥१४७ __ कहा भी है-सुखी और दुःखी दोनों ही प्रकारके मनुष्योंको संसारमें धर्म ही करना चाहिए। सुखीको सुखकी वृद्धिके लिए और दुःख भोगनेवालेको दुःखके विनाशके लिए धर्म करना आवश्यक है ।।१३८॥ मिथ्या दृष्टियोंके द्वारा प्रतिपादित और हिंसादिसे संयुक्त धर्म होता है, ऐसा जाननेवाला भी प्राणी पापका सेवन करता है ॥१३९।। जो पंच महाव्रतोंसे युक्त हैं, जिनका मन तत्त्वज्ञानसे अधिष्ठित है, जो अहिंसामयी धर्मके उपदेशक हैं और पाणिपात्र-भोजी हैं, वे ही सच्चे गुरु माने गये हैं ॥१४०।। जो दर्शनाचार आदि पांचों आचारोंके विचारज्ञ हैं, जिनकी कषाय शान्त है, परीषहोंके जीतने वाले हैं, और बाहिरी तथा भीतरी सभी प्रकारके परिग्रहोंसे विमुक्त हैं, वे ही सच्चे गुरु हैं ।।१४१।। कहा भी है-क्षेत्र, वस्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, आसन, शय्या, कुप्य और भाण्ड ये दश प्रकारके बाहिरी परिग्रह हैं ॥१४२॥ मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष हास्यादि छह नोकषाय, और क्रोधादि चार कषाय ये चौदह प्रकारका आभ्यन्तर परिग्रह है ॥१४३॥ जो इच्छानुसार इष्ट भोजन भोगनेकी लालसा रखते हैं, काम-विकारसे पीड़ित हैं और मिथ्या उपदेशको देते हैं, वे सत्पुरुषोंके गुरु नहीं हैं ॥१४४॥ जो स्वयं ही अपार संसार-सागरमें निमग्न हैं और परिग्रहसे युक्त हैं, वे कुगुरु दूसरोंको तारनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ॥१४५ । कहा भी है-यदि रोग-युक्त भी पुरुष देव हो, ब्रह्मचर्यसे रहित भी पुरुष गुरु हो और दयासे रहित भी धर्म हो, तब तो हाय-हाय बड़ा कष्ट है-यह सारा जगत् ही नष्ट हो जायगा ॥१४६॥ उक्त प्रकारके सच्चे देव, गुरु और धर्ममें जिसका निश्चय है, वह पुरुष सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । और जिसके इन तीनोंमें संशय है अर्थात् निश्चय या विश्वास नहीं है, वह पुरुष मिथ्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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