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________________ २७६ श्रावकाचार संग्रह प्रशस्येनाश्वेन व्रजति भटकोटीभिरभितः परीतः सच्छत्रक्षपिततततापोऽत्र सुकृती । तथाग्रे स्वेदाम्भः स्नपितवदनो धावति जनो विहीना पुण्येन प्रसृमररजःपुञ्जमलिनः ॥१३३ हृत्कोष्ठोद्यद्गण्डमालाशिरोत्तिश्लेष्मश्वासस्फार कुष्टा दिरोगाः । मुक्त्वा नूनं धर्मकर्मप्रवीणान् पापव्यापत्सङ्गतान् संभजन्ते ॥१३४ यद्रव्यार्जनशक्तिरद्भुतभुजे सामर्थ्यमूर्जस्वलं यद्रूपं मदनानुकारि वदनं यत्पर्णपूर्ण सदा । यद्गेहे तरुणी सती स्मितमुखी सूक्ष्माणि वस्त्राणि यद् देहं रोगविवजितं तदखिलं पुण्यस्य विस्फूर्जितम् ॥१३५ यत्सत्यामृतबिन्दुशालिवचनं चित्तत्त्वचिन्ताचितं चेतो यद्यदसीमशीलललितं रूपं दया प्राणिषु । यत्सन्तोषसुखं मतिः श्रितनया मानोज्झितं यच्छ्रतं यच्छ्रीमज्जिनसेवनं तबखिलं धर्मस्य विस्फूजितम् ॥१३६ सिन्धुश्रेणिरिवाम्बुधि बुधजनं विद्येव पुष्पाकरं माद्यषट्पदमालिकेव हरिणालीव प्रशस्तं वनम् । माकन्दं पिककामिनीव च सरःस्वच्छाम्बु हंसावलि हर्षोत्कर्षतया श्रयत्यविरतं लक्ष्मीर्नरं धार्मिकम् ॥१३७ जनोंके घरों में तो निरन्तर रुद्रके शरीरके समान नग्नता, खट्वाङ्ग (टूटी खाटका एक भाग), कौड़ियोंसे परिमित विभूति और सां का समूह रहता है || १३२|| सुकृतशाली मनुष्य इस लोकमें सैकड़ों सुभटोंके द्वारा सर्व ओरसे घिरा हुआ, और जिसके द्वारा सूर्य-सन्ताप दूर किया जा रहा है, ऐसे लोगोंके द्वारा उठाये गये उत्तम छत्रको धारण करता हुए प्रशंसनीय अश्वपर आरोहण करके जाता है । किन्तु पुण्यसे विहीन मनुष्य जिसका कि शरीर पसीने के जलसे नहा रहा है और उड़ती हुई धूलिके पुंजसे मलिन हो रहा है ऐसा होकर उनके आगे दौड़ता है || १३३॥ हृदय रोग, उदररोग, उठती हुई गण्डमाला, मस्तक पीड़ा, कफ, श्वांसकी प्रबलता और कोढ़ आदि अनेक रोग धर्मकार्य में प्रवीण लोगोंको छोड़कर पापरूप आपत्ति से ग्रसित लोगोंको पीड़ित करते हैं ॥१३४|| Jain Education International मनुष्यको जो द्रव्य उपार्जन करनेकी शक्ति प्राप्त होती है, अद्भुत भुजाओंमें जो ओजस्वी सामर्थ्य, कामदेवके समान सुन्दर रूप, ताम्बूलसे सदा परिपूर्ण मुख, घरमें तरुणी प्रसन्नमुखी सती स्त्री, सूक्ष्म सुन्दर वस्त्र और रोग-रहित शरीर प्राप्त होता है, वह सब पुण्यका ही प्रभाव है । ॥१३५॥ जो सत्य और अमृत बिन्दुके सदृश मिष्ट वचन, जो आत्म तत्त्वकी विचारणासे युक्त चित्त, जो असीम शीलसे संयुक्त रूप, जो प्राणियोंपर दयाभाव, जो सन्तोषसुख, जो नयविवक्षासे आश्रित विवेक बुद्धि, जो गर्व - रहित शास्त्रज्ञान, और जो श्रीमान् जिनदेवके सेवनका भाव प्राप्त होता है, वह सब धर्मका ही प्रभाव है || १३६ || जैसे नदियोंकी श्रेणि-परम्परा समुद्रको प्राप्त होती है, विद्या fare प्राप्त होती है, मत्त भ्रमरोंकी पंक्ति पुष्पोंके आकार उद्यानको प्राप्त होती है, हरिणोंकी पंक्ति प्रशस्त वनको कोकिल - कामिनी आम्रवृक्षको और हंसावली स्वच्छ जलवाले सरोवरको प्राप्त होती है, उसी प्रकार धर्म करनेवाले पुरुषको लक्ष्मी भी हर्षके उत्कर्षसे युक्त होती हुई निरन्तर आश्रय करती है ॥ १३७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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