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________________ श्रावकाचार - सारोद्धार २७५ पिण्याकस्य न खण्डमप्युपगतं व्रीडप्रसर्पत्क्षुषाक्षामाङ्गा नितरां त्वदीयतनयाः किं भक्षयिष्यन्ति रे । गेहिन्या इति कालकूटकठिना वाचः समाकयर्णन् पापी जीर्णकुटीरके च निवसन् कष्टं जनो जीवति ॥ १२७ बुभुक्षितेभ्यो हृदयङ्गमं परे वितीर्य भोज्यं स्वयमेव भुञ्जते । स्वकुक्षिमन्ये खलु भर्तुमर्थनापरम्पराभिः प्रभवो न पापिनः ॥ १२८ स्वाद्यस्वाद्य विशेष रम्यममृत श्रीगर्व सर्वकषं भोज्यं काञ्चनभाजनेषु निहितं स्त्रीपुत्रमित्रादिभिः । साकं पुण्यधियश्च पापमलिना मृत्कुण्डखण्डे स्थितं भिक्षाऽऽप्तं विरसं सदा विचलितस्वादं जना भुञ्जते ॥ १२९ कङ्कोलक्रमुकादिचूर्णनिचितकर्पूरपूरस्फुरत्-प्राज्यामोदविमोदितालिनिवहं माधुर्य लीलास्पदम् । ताम्बूलं भुवि भोगमूलमबलाहस्तापितं धार्मिकाः खादन्ति प्रतिवासरं तदितरे नामापि नोजानते ॥१३० सौधे रत्नमय प्रदीपकलिकाध्वस्तान्धकारव्रजे पत्यङ्के परमोपधानरचिते रम्याङ्गनाभिः समम् । सुताः पुण्यभृतो नयन्ति निधनं रात्रि तु पापान्विता मार्गे कर्दमदुस्तरे पिपतिताः कन्याभिरप्युज्झिताः ॥ १३१ सौधे ऽगाधपयोनिधाविव पुराजन्मार्जितश्रेयसा रत्नानि स्थितिमादराद्विदधति द्विः सप्त सङ्ख्यान्यलम् । पापाधीनधियां तु सन्नतमहो खाङ्गवन्नग्नता खट्वाङ्गोरुकपर्दकामितलसद्भूतिद्विजिह्वोत्करा ॥१३२ बन गये, ऐसे उन सौधों (राजप्रासादों) में पुण्यवन्त लोग रहते हैं ॥ १२६|| रे पापिनु, आज मांगने पर भी कहींसे खलीका एक टुकड़ा तक भी नहीं मिला है, अत्यन्त बढ़ती हुई भूखसे जिनके शरीर अत्यन्त कृश हो गये हैं, ऐसे ये तेरे लड़के आज क्या खावेंगे ? इस प्रकार घरवालीके कालकूटसे भी कठोर वचनोंको सुनता हुआ पापी मनुष्य अपनी जीर्ण-शीर्ण कुटीमें निवास करता हुआ कष्टपूर्वक जीवन बिताता है || १२७|| कितने ही पुण्यशाली मनुष्य भूखसे पीड़ित जनोंको मन पसन्द भोजन वितरण करके फिर स्वयं भोजन करते हैं । किन्तु अन्य पापी लोग लगातार भीख मांगनेपर भी अपना पेट भरनेके लिए समर्थ नहीं होते हैं ॥ १२८ ॥ पुण्यशाली लोग सुवर्णके पात्रोंमें रखे हुए स्वाद्य-स्वाद्य विशेषसे रमणीय, अमृतकी श्रीके गर्वको भी खर्व करने वाले, अर्थात् अमृत से भी अधिक मिष्ट ऐसे भोज्य पदार्थों को अपनी स्त्री पुत्र और मित्रादिके साथ खाते हैं । किन्तु पापसे मलिन मनुष्य मिट्टीके कूंडेके टुकड़े में रखे हुए, भीखसे प्राप्त, नीरस एवं विकृत-चलित स्वादवाले टुकड़ोंको खाते हैं ॥१२९ ॥ कंकोल, सुपारी आदिके चूर्णसे भरे हुए, कपूरकी सुगन्धसे सुगन्धित, अपनी उत्तम गन्धसे भ्रमर समूहको प्रमुदित करनेवाले, माधुर्य लीलाके स्थानभूत, सुन्दर बालाओंके द्वारा समर्पण किये गये भोग मूलकारण ऐसे ताम्बूलको संसारमें धार्मिक जन प्रतिदिन खाते हैं । किन्तु पुण्य हीन जन उनका नाम भी नहीं जानते हैं ॥ १३०॥ पुण्यवन्त पुरुष रत्नमयी प्रदीपोंके प्रकाशसे जहाँका अन्धकारपुंज नष्ट कर दिया गया है, ऐसे भवनोंमें उत्तम गद्दी -तकियोंसे सजे हुए पलंगपर रमणीक रमणियोंके साथ सोते हुए रात्रिको बिताते हैं । किन्तु पापसे संयुक्त मनुष्य कीचड़से भरे हुए मार्ग में कंथा (गूदड़ी) से भी रहित होते हुए पड़े रहकर रात बिताते हैं ॥ १३१ ॥ पूर्वजन्ममें उपार्जन किये गये पुण्यसे उनके महलोंमें अगाध समुद्र के समान चौदह रत्न आदरसे अवस्थान करते हैं । किन्तु पापके अधीन बुद्धिवाले पुण्य होन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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