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________________ २७२ श्रावकाचार-संग्रह पञ्चास्यो हरिणायते जलनिधिः क्रीडातडागायते सप्ताचिस्तु जलायते भुजगराट् सत्पुष्पदामायते । क्ष्वेडस्तस्य सुधायते गजपतिः सद्यस्तुरङ्गायते चित्ते यस्य दयान्विते प्रतिदिनं धर्मो लसत्यद्भतः॥१०६ धर्मः पिता गुरुधर्मो माता धर्मश्च बान्धवः । अकारणसुहृद्धर्मो धर्मो जीवस्य जीवितम् ॥१०७ कलङ्कविकलं कुलं द्विरदगामिनी कामिनी गुणाश्च विनयोल्वणाः कृतमुदः सदा सम्पदः । शरीरमतिसुन्दरं बहुयशोभरो भासुरः कले भुजयुगे बलं सुकृतशाखिनः सत्फलम् ॥१०८ सरङ्गा मातङ्गा जितपवनवेगाश्च तुरगाः विभासनं छत्रां सततममला राज्यकमला। गुणोदारा दारा विहितविनयाश्चारुतनयाः प्रजायन्ते लोके कृतसुकृतपाकात्तनुभृताम् ॥१०९ प्रख्यापयन् स्वविभुतां दुरितं विधुन्वन् सम्पादयन्नभिमतं सकलस्य जन्तोः । निर्लोठयन्मतमिदं किल नास्तिकानां प्रद्योतितोऽमितविभो भुवि धर्मराजः ॥११० धर्मेणामरपादपप्रभृतयः सान्निध्यभाजो नृणां जायन्ते यदि तैरमा कथमसावुच्चैः प्रयातूपमाम् । कि भास्वानवनामितोदरलसत्सर्वार्थविद्योतकः खद्योतैः स्वतनुप्रकाशनपरैरत्रोपमेयो भवेत् ॥१११ न धर्मेण विना शर्म चेतोऽभिलषितं नृणाम् । न हि बीजं विना दृष्टः फलिनः पादपः क्वचित् ॥११२ परिवत्तिसुखे वाञ्छा यस्यास्मिन् पृथिवीतले । तेन कर्महरो धर्मो विधातव्यः प्रयत्नतः ॥११३ उल्लासको प्राप्त होता रहता है, उसके आगे पञ्चानन सिह हरिणके समान आचरण करता है, समुद्र जल-क्रीडाके तालाबके सदृश हो जाता है, प्रज्वलित अग्नि जलके समान हो जाती है, भुजंगराज उत्तम फूलोंकी माला बन जाता है, विष अमृतरूपसे परिणत हो जाता है और गजराज घोड़ेके समान आचरण करने लगता है ॥१०६।। संसारमें धर्म ही पिता है, धर्म ही गुरु है, धर्म ही माता है, धर्म ही बान्धव है, धर्म ही अकारण मित्र है। अधिक क्या कहा जाय, धर्म ही जीवका जीवन है ।।१०७॥ कलङ्कसे रहित निष्कलङ्क कुलमें जन्म होना, गज-गामिनी स्त्री मिलना, विनयसे युक्त सद्-गुण प्राप्त होना, प्रमोद-वर्धक सम्पदा सदा रहना, अति सुन्दर शरीर मिलना, प्रकाशमान भारी यशकी प्राप्ति होना और सुन्दर पुष्ट दोनों भुजाओंमें बल होना, ये सर्व कार्य सुकृत अर्थात् पुण्यरूपी वृक्षके उत्तम फल हैं ॥१०८॥ पूर्व जन्ममें किये गये सुकृतके परिपाक (उदय) से इस लोकमें जीवोंको उत्तम मदमाते हाथी और पवनके वेगको जीतने वाले घोड़े, प्राप्त होते हैं, प्रकाशमान श्वेत छत्र मिलता है, सदा रहनेवालो निर्मल राज्यलक्ष्मी प्राप्त होतो है, उदार गुणवाली स्त्रियां मिलती हैं और विनय करनेवाले सुन्दर पुत्र उत्पन्न होते हैं ।।१०९॥ अपनी प्रभुताको प्रख्यात करनेवाला, पापोंका विनाश करनेवाला, सर्व प्राणियोंको अभीष्ट वस्तु देने वाला, और नास्तिकोंके मतका उन्मूलन करनेवाला यह धर्मराज अर्थात् सर्वधर्मों में श्रेष्ठ अहिंसामयी धर्म लोकमें अपरिमित प्रभावाले जिनराजने प्रकाशित किया है ॥११०।। यदि धर्मसे कल्पवृक्ष, कामधेनु आदि सुखदायी पदार्थ मनुष्योंको समीपताको धारण करते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं, तो उनके साथ धर्मकी उपमा कैसे दी जा सकती है। नहीं दी जा सकती। संसारके उदर-वर्ती सर्व पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला सूर्य क्या अपने शरीरमात्रको प्रकाशित करनेवाले खद्योतोंके साथ उपमेय हो सकता है। कभी नहीं हो सकता ॥१११।। धर्मके विना मनोवांछित सुख मनुष्योंको कभी नहीं मिल सकता है। बीजके विना फल देनेवाला वृक्ष क्या कहीं उत्पन्न होता हुआ देखा गया है। कभी नहीं ॥११२|| इस पृथ्वीतलमें जिस पुरुषकी सदा रहनेवाले यदि सुखमें वांछा हो तो उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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