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________________ श्रावकाचार-सारोद्धार २७३ दत्त स्वर्नगरी श्रियं सुरगणाभिष्टुत्यमानोदयां भूमीपालविशालभालविनुतं सूते पदं चक्रिणः । भक्तिब्रह्मसरीसपैः कृतलसत्सेवावितीर्णोत्सवं साम्राज्यं भुजगाधिपस्य तनुते धर्मः सदा सेवितः ॥११४ सुरासुरनराधीशवर्ण्यमानगुणोदयाम् । जिनेन्द्रपदवी धत्ते धर्मः सम्यगुपासितः ॥११५ स्याद द्वात्रिंशत्सहस्रप्रमितनरवराधीशकोटीरकोटिस्फूर्जन्माणिक्यमालाप्रसमरकिरणस्मेरपादारविन्दः । प्राणी द्विःसप्तरत्नोदधिरखिलनिधिप्रेडदुच्चैविभूति भूम्ना धाम्ना परीतो भव-भदविहिताद्धर्मतश्चक्रवर्ती ॥११६ तुल्येऽपि हस्तपादादौ यदेके सुखिनः परे । दुःखिनस्तत्र सम्यक् स्याद्वर्माधर्मविजम्भितम् ॥११७ समे यत्नेऽपि यच्चैके लभन्ते विपुलं फलम् । अतिदुष्टं परे कष्टं तत्तयोरपि चेष्टितम् ॥११८ अनिपित्सरपि ध्रवं जनो नरकं दस्तपमेति पापतः। प्रसरत्सुखसञ्चयान्वितं लभते स्वर्गमगण्यपुण्यतः॥११९ ग. बाल्येऽपि वृद्धत्वे यौवने यच्छरोरिणाम् । वाचामगोचरं दुःखं तत्पापस्य विजृम्भितम् ॥१२० । लोकैर्गोत्रप्रसूतैरहमहमिकया गर्भवासे स्थिता यत् सेव्यन्ते सञ्चरन्ते थुवतिजनकरैः कोमलैयच्छिशुत्वे । आलिङ्गन्ते च लक्ष्म्या नियतमसमया यौवने वार्द्धके य ज्जीवा मोक्षं सदीक्षा विदधति निखिलं धर्मसामर्थ्यमेतत् ॥१२१ प्रयत्नपूर्वक कर्मोंका हरण करनेवाला धर्म करना चाहिए ॥११३॥ सदा सेवन किया गया धर्म देवगणोंसे स्तूयमान उदयशालिनी देवनगरीकी लक्ष्मीको देता है, भूमिपालोंके विशाल भालोंसे नमस्कृत चक्रवर्तीके पदको देता है, और भक्ति-भरित नागोंके द्वारा की जानेवाली उल्लासमयो सेवासे किया जा रहा है आनन्द-उत्सव जिसमें ऐले नागराज धरणेन्द्रके साम्राज्यको देता है ।११४॥ सम्यक् प्रकारसे उपासना किया गया धर्म सुर-असुर और मनुष्योंके स्वामी इन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्रों के द्वारा वर्ण्यमान गुणोदयवाली जिनेन्द्रपदवीको अर्थात् तीर्थकरपदको देता है ॥११५।। धर्मकी आराधनासे मनुष्य ऐसा सार्वभौम चक्रवर्ती होता है, जिसके चरणारविन्द बत्तीस हजार श्रेष्ठ राजाओंके मुकुटोंमें लगे हुए प्रकाशमान मणि-माणिक्योंकी मालाओंकी किरणोंसे प्रकाशमान हो रही है, जो सात सचेतन रत्नों और सात अचेतन रत्नोंका स्वामी है, समस्त (नो) निधियोंसे जिसकी विभूति अति उच्चताको प्राप्त हो रही है और जो भारी कान्ति और तेजसे व्याप्त हो रहा है । ऐसा महान् चक्रवर्तीका पद भी भव-भवमें किये गये धर्मसे प्राप्त होता है ॥११६।। (हे राजन्, और भी देखो-) हाथ-पैर समान होनेपर भी कुछ लोग तो सुखी दिखाई देते हैं और अन्य कुछ लोग दुःख भोगते हैं. सो यह सब भले प्रकारसे किये गये धर्म और अधर्मका विस्ताररूप फल है ॥११७|| समान प्रयत्न करनेपर भी कितने ही लोग विपुल धनादिकी प्राप्तिरूप फलको प्राप्त करते हैं और कितने ही लोग अति दुःखदायी कष्टोंको प्राप्त होते हैं सो यह भी उन्हीं धर्म और अधर्मकी चेष्टा है ।।११८॥ पापके फलसे नहीं चाहते हुए भी कोई मनुष्य निश्चित रूपसे दुस्तर नरकको जाता है और कोई अगण्य पुण्यसे निरन्तर बढ़ते हुए सुख-संचयसे युक्त स्वर्गको प्राप्त करता है ॥११९।। गर्भावस्थामें, बालकालमें, और जवानीके समय जो प्राणियोंको वचन-अगोचर दुःख प्राप्त होते हैं, वह सब पापका विस्तार है ।।१२०॥ गर्भवासमें रहते समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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